Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 511
________________ २९६ माव-संग्रह अर्थ- वे सिद्ध भगवान एक ही समय मे समस्त लोकाकाण और समस्त अलोकाकाश को जानते है तथा सबको एक ही साथ एक ही समय में देखते है । उन समस्त सिद्धों का सुख शुद्ध आत्मा अन्य स्वाभाविक है, संसार के सुख की तथा उनकी कोई उपमा नहीं है और न कभी उन सिद्धो का अन्त होता है । वे सदा काल विराजमान रहते है। रवि मेरु बंदसायरगयणाईयं तु णस्थि जह लोए । उयमाणं सिद्धाणं णत्थि तहा सुक्खसंधाए ।। रवि मेश्चन्द्र सागर गगनादिक तु नास्ति यथा लोके । उपमानं सिद्धानां नास्ति तथा सुख संवाते ।। ६९६ ।। अर्थ- सूर्य, चन्द्रमा, मेरु पर्वत समुद्र आकाश आदि इस लोक संबधी समस्त पदार्थ सिद्धों के उपमान नहीं हो सकते, अर्थात् मंसार मे सा कोई पदार्थ नहीं है जिसकी उपमा सिद्धों को दे सकें । इसी प्रकार उनके अनन्तसुखका भी कोई उपमान नहीं हैं। चलणं वलणं चिता करणीयं कि पिणत्यि सिद्धाणं । जम्हा अईदियत्तं कम्मामाबे समुप्पण्णं ॥ चलनं चलनं चिन्ता करणीयं किमपि नास्ति सिद्धानाम् । यस्मादतीन्नियत्वं कर्माभावेन समुत्पन्नम् ।। ६९७ ॥ अर्थ- उन सिद्ध परमेष्ठी को न कहीं गमन करना पड़ता है; न अन्य कोई क्रिया करनी पड़ती है और न किसी प्रकार की चिंता करनी पडती है। इसका भी कारण यह है कि उनके समस्त कर्मों का अभाव हो गया है इसलिये उनके अतोन्द्रियत्व प्राप्त हो गया है । भावार्थ-संसार में जितनी क्रियायें है वे सब इंद्रियों के द्वारा होती है। सिद्ध परमेष्ठी के शरीर और इन्द्रियां सभी नष्ट हो गई है। इसलिये उनको कोई भी किया कभी नहीं करनी पड़ती हैं। आगे आचार्य अन्तिम मंगल करते है। गठ कम्मबंधण जाइ जारामरण विष्पमुक्काणं । अट्ठवरिष्ठगुणाणं णमोणमो मध्य सिद्धाणं ।।

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