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कालं काउं कोई तत्यय उचसामगे मुणगे । सुक्कज्झाणं साइय उज्जइ सम्बसिद्धी ॥
कालं कृत्वा कश्चित्तत्रोपशम के गुणस्थाने । शुक्लध्यानं व्यात्वोत्पद्यते सर्वार्थसिद्धये ६५८ ।।
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अर्थ- इसी उपशांत मोर नाम के ग्याहरवें गुण स्थान मे रहने बाले मुनि की यदि आयु पूर्ण हो जाय तो वे शुकान का धान करते हुए शरीर को छोड़ देते हैं और मर कर मुनि नियन सिद्धि मे उत्पन्न होत है ।
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भाव-संग्रह
ओ हु चेदृद्द पंको सर नियम जह सरइ । तह मोहो तम्मि गुणे हेउ लहि ऊण उल्ललई ||
अधः स्थितोहि तिष्ठति पंकः सरः पानीये यथा शरदि । तथा मोहस्तस्मिन् गुणे हेतुं लब्ध्वा उद्गच्छति ॥ ६५६ ।।
अर्थ - जिस प्रकार शरद् ऋतु में कीचड सब तालाब के पानी नीचे बैठ जाती है तथापि वह वायु आदि का कारण पाकर फिर ऊपर आ जाती है उसी प्रकार आठवें नांवें दावें ग्याहरवे गुण स्थानों मे जिस मोहनीय कर्म का उपशम किया था तथा ग्याहरवे गुण स्थान में आकर समस्त मोहनीय कर्म का उपशम कर दिया था बही मोहनीय कर्म इस ग्यारहवें गुण स्थान के अन्त समय में कारण पाकर उदय में आ जान | है। जब मोहनीय कर्म का उदय आ जाता है तब वे मुनि ग्यारहवें भ गिर कर सातवे गुण स्थान मे आ जाते है यदि उसी समय मिध्यात्व का उदय हो जाय तो वे मुनि पहले मिथ्यात्व गुण स्थान में आ जाते
जो लवयसेदि रूढो ण होइ उवसामिओति सो जीवो । मोहद स्वयं. तो उसो सवओ जिणिदेहि ||
यः क्षपक श्रेष्यारूढो न भवति उपशामकः इति स जीवः । मोह क्षयं कुर्वन् उक्तः क्षपको जिनेन्द्रः ।। ६६० ॥
अर्थ - जो मुनि प्रारम्भ से ही क्षपक श्रेणी में चढते हैं वे मुनि