Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 499
________________ भाव-संग्रह आवरणाण विणासे दसण णाणाणि अंतरहियाणि । पावइ मोह विणासे अणंत सुक्खं च परमप्पा ॥ ६६६ ।। विध विणासे पावइ अतर्राहयं च बोरियं परमं । उच्चइ सजोइकेवलि तइय उझाणेण सो तइया ।। ६६७ ।। आवरणयोः विनाशे दर्शन जाने अन्त रहिते । प्राप्नोति मोह विनाशे अनन्त सुखं च परमात्मा ।। ६६६ ।। विघ्न विनाशे प्राप्नोति अन्त रहितं च वीर्य परमम् । उच्यते सयोगि केवली ततोय ध्यानेन स तत्र ।। ६६७ ।। अर्थ- नानगावराणा कर्म के बारा होने को जन परमात्मा स्वरूप भगवान के अनंत ज्ञान प्रगट हो जाता है, दर्शना वरण कर्म के नामा होने से अनन्त दर्शन प्रगट हो जाता है, मोहनीय कर्म के अत्यन्त नाश होने म अनंत सुख प्राप्त हो जाता है अतराय कर्म का अत्यन्त नाश होने से अनंत वीर्य प्रगट हो जाता है। इस प्रकार बे भगवान अनंत चतुष्टय को धारण कर सयोगी केवली कहलाते है। उन सयोगी केवलो भगवान के सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नाम तीसरा शुक्ल ध्यान होता है । इस प्रकार बारहवें गुण स्थान का स्वरूप कहा आगे तेरहवे सयोगी केवली गुण स्थान का स्वरूप कहते है। सुद्धोखाइयभायो अवियप्पो जिम्चलो जिणिदस्स । अस्थि तया तं गाणं सुहुम किरिया अपडिवाई ।। शद्ध क्षायिको भावोऽविकल्पो निश्चलो जिनेन्द्रस्य । अस्ति तत्र तध्यान सुक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ।। ६६८ ॥ अर्थ- तेरहवें गुण स्थान वर्ती केवली भगवान जिनेन्द्र देव के शुद्ध क्षायिक भाव होते है तथा वे भाव विकल्प रहित होते है और निश्चल होते है । इस तेरहवें गुण स्थान में सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नाम का तीसरा शुक्ल ध्यान होता है । परिफवो अइसुहमो जोव पसाय अस्थि तमकाले । तेणाणू भाइदा आसविय पुणो विविहरति ।।

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