Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 501
________________ २८६ हो होते हैं उनका सुख स्वात्म जन्य स्वाभाविक ही होता है और उनका ज्ञन इन्द्रियों से रहित और अनुक्रम से रहित होता है । भावार्थ- जिस प्रकार इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान अनुक्रम से होता है उस प्रकार भगवान का ज्ञान न तो इन्द्रियों से होता है और न अनुक्रम से होता है। बे तो एक ही समय और उनकी समस्त पर्यायों को जान लेते है । यही बात आगे दिखलाते है । गाणं तेण जाणइ कालत्तय यदिए तिहूवणत्थे । भावे समय विसमे सच्चेपणा चेयणे सच्चे || ज्ञानेन तेन जानाति कालत्रय वर्तमान् त्रिभुवनार्थान् । भवान् समाश्च विषमान् सचेतना चेतनान् सर्वान् ।। ६७२ ।। भाव-संग्रह अर्थ- वे भगवान उस अपने केवल ज्ञान से तीनों लोकों में रहने वाले समस्त चेतन अचेतन पदार्थों को तथा सम विषम पदार्थो को और भूत भविष्यत् वर्तमान सम्बन्धी उन समस्त दार्थों की अनंतानंत पर्यायों को एक समय में ही जान लेते है । एक्कं एक्कमि खणे अणतपज्जायगुण समाइणं । जाणद्द जह तह जाणइ सच्चई दव्बाई समयस्मि ॥ एकमेकस्मिन् क्षणे अनन्त पर्याय गुण समाकीर्णम् । जानाति यथा तथा जानाति सर्वाणि द्रव्याणि समये ।। ६७३ ॥ अर्थ- जिस प्रकार वे भगवान किसी एक पदार्थों को उसकी अनंता नंत पर्याय और उसके समस्त गुणों को एक ही समय में जान लेते हैं उसी प्रकार वे भगवान एक ही समय मे समस्त द्रव्य उनकी समस्त पर्या और उनके समस्त गुण एक ही समय में जान लेते है । जाणतो पिच्छंतो कालत्तयवदियाइं बचाई । उत्तो सो सम्वहू परमप्पा परम जोइहि ॥ जानन् श्यत् कालत्रयवर्तमानानि द्रव्याणि 1 " दशः स सर्वज्ञः परमात्मा परमयोगिभिः ।। ६७४ ।।

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