Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 506
________________ भाव-सग्रह अर्थ-- जो जीव मन सहित है उन्ही के ध्यान होता है । तथा मन की प्रवृत्ति कामण काय योग से होती है । तथा जहां पर कार्मण काय योग के निमित्त में मन की प्रवृत्ति होती है वहां पर कर्म का उदय होने से शुभ वा अशुभ विकला भी उत्पन्न होते है। असुहे असुहं माणं सुहमाण होइ सुहोपजोगेण । सुद्धे सुदं कहियं सासवाणासवं दुविहं ।। अशुभोऽशुभं ध्यानं शुभं ध्यान भवति शुभोपयोगेन । शुद्धेशुद्धं कथितं सास्त्रवानास्त्रवं द्विविधम् ।। ६८५ ॥ अर्थ- जहां पर अशु विकल्प वा अशुभोपयोम होता है वहां पर अशुभ ध्यान होता है, जहां पर शुभ विकल्प वा शुभोपयोग होता है वहां पर शुभ ध्यान होता है । तथा जहां पर शुभ अशुभ कोई विकल्प नहीं होता फेवल शुद्ध उपयोग होता है वहां पर शुद्ध ध्यान होता है । यह शुद्ध ध्यान दो प्रकार का होता है, जिसमे नात्रव होता रहै ऐसा आस्रव सहिद शुक्ल ध्यान और जिसमें आसत्र न हो ऐसा आस्रव रहित शुद्ध ध्यान वा शक्ल ध्यान । पढ़म योयं तवयं सासवयं होइ इय जिणो भणइ । विगयासयं चउत्थं झाणं कहियं सभासेण ।। प्रथम द्वितीयं तृतीयं सास्त्रयं भवति एवं जिनो भणति । विगताखवं चतुर्थ ध्यानं कथितं समासेन ।। ६८६ ॥ अर्थ- शुक्ल ध्यान के चार भेद है उनमे से पहला शुक्ल ध्यान, दूसरा शुक्ल और तीसरा शुक्ल ध्यान ये तीनों शुक्ल ध्यान आस्रव सहित होते है अर्थात् इनमें कर्मों का आस्रव होता रहता है और चौथा शुक्ल ध्यान निरास्त्रव है आस्रव रहित, उसमें किसी कर्म का आस्त्रव नहीं होता ऐसा भगवान जिनेन्द्र देव ने कहा है । इस प्रकार संक्षेप से इन ध्यानों का स्वरूप है । . . आगे चौदहवे गुण स्थान के अनंतर होने वाली सिद्ध अवस्था का स्वरुप कहते है।

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