Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 505
________________ २१० भाव-संग्रह है । इस गुण स्थान में क्षायिक और शुद्ध भाव होते हैं और इसीलिये वे भगवान निरंजन और परम वीतराग हो जाते हैं । झाणं सजोइ केवलि जह तह अझोइस्स पत्थि परमत्ये । उवपारेण पउत्तं भूयत्थणय विवक्खाए || ध्यानं सयोग केवलिनो यथा तथाऽयोगिनः नास्ति परमार्थेन । उपचारेण प्रोक्तं भूतार्थनय विवक्षया ।। ६८२ ॥ अर्थ- जिस प्रकार सयोग केवली भगवान के ध्यान होता है उस प्रकार का ध्यान भी इस गुण स्थान में नहीं होता । इस गुण स्थान में वास्तव मे ध्यान होता ही नहीं है। इस गुण स्थान में भूतार्थ नय की अपेक्षा से ( पूर्वकाल नय की अपेक्षा से ) उपचार से ध्यान माना जाता है । कर्मों का नाश बिना ध्यान के नहीं होता और चौदहवें गुण स्थान में अघातिया कर्मों का नाश होता है । इसलिये उपचार से ध्यान माना जाता है वास्तविक नहीं । आगे इसका कारण बतलाते है । शाणं तह शायारो शेयवियया य होंति मणसहिए । तं णत्थि केवल दुग्रे तम्हा झाणं ण संभव ध्यानं तथा ध्याता ध्येय विकल्पाश्च भवन्ति मनः सहिते । तारित केवलद्वि तस्माद् ध्यानं न संभवति ।। ६४३ || अर्थ - ध्यान, ध्यान करने वाला ध्याता और ध्यान करने योग्य ध्येय पदार्थों के विकल्प ये सब मन सहित जीवों के होते है । परन्तु वह मन सयोगी केवली तथा अयोगी केवली दोनों गुण स्थान बालों के नहीं हूँ । इसलिये इन तेरहवे और चौदहवे गुण स्थानों में ध्यान नहीं है । मणसहियाणं झाणं मणो विकम्माण कायजोयश्ओ । तत्थ विजय सुहासुहो कम्म उदाएण || मनः सहितानां ध्यानं मनोपि कामकाययोगात् । तत्र विकल्पो जायते शुभाशुभः कर्मोदयेन ॥ ६८४ ॥

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