Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 497
________________ २८२ सुक्कज्ज्ञाणं वीयं मणियं सवियक्क एक्क अवियारं । माणिक्क सिहाचलम् अस्थि तहि णत्थि संदेहो || शुक्लध्यानं द्वितीयं भणितं सवितर्ककत्त्रावोचारम् | माणिक्यशिखाचपलं अस्ति तत्र नास्ति सन्देहः ।। ६६३ ।। अर्थ - इस गुण स्थान में एकत्व वितर्क नाम का दूसरा शुक्ल ध्यान होता है वह ध्यान वितर्क अर्थात् श्रुत ज्ञान सहित होता है किसो एक हो योग से होता है और उसमें वीचार वा संक्रमण नहीं होता चार रहित होता है। जिस प्रकार माणिक रत्न की शिखा निश्चल रहती है उसी प्रकार उन मुनो का ध्यान वीचार रहित निश्चल होता है इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । होऊण खीण मोहो हणिऊण य मोह विडविवित्थारं । घाइत्तयं च छाइय द्विचयभ समएस झाणेण || भाव- संग्रह भूत्वा क्षोण मोहो हत्या च मोह विटपि विस्तारम् | धातित्रिकं च घातयित्वा द्विचरम समयेषु ध्यानेन ।। ६६४ ।। अर्थ - जिस समय वे ध्यानी मुनि मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का नाश कर बारहवे गुण स्थान मे पहुच जाते है तब वे मुनि वारहवे गुण स्थान के उपान्त्य समय से अपने प्रज्वलित ध्यान के द्वारा ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्नराय कर्म इन तीनों घातियां कर्मों का नाश कर डालते है । ॐ * अथक्त्व मवीचारं सवितर्कगुणान्वितम् । सन् ध्यायत्येक योगेन शुक्ल ध्यानं द्वितीयकम् || अर्थ- दूसरे एक वितर्क शुक्ल ध्यान में किसी एक ही पदार्थ का ध्यान होता है। वह किसी भी एक योग से धारण किया जाता है, श्रुत ज्ञान सहित होता है तथा विचार रहित होता है । निजात्म द्रव्यमेकं वा पर्याय मथवा गुणम् । निश्चलं चिन्त्यते यत्र तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥

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