Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 491
________________ भाव-संग्रह उपशम होने पर अपूर्व परिणाम होते रहते है जैमे शुध परिणाम पहले कमी नहीं हुए थे वैसे अपूर्व शुद्ध परिणाम होते रहते है इसलिय आचार्यों ने इस गुण स्थान का नाम अपूर्व करण गुणस्थान रक्खा । इस प्रकार अपूर्व करण गुण स्थान का स्वरुप कहा। आगे अनिवृत्ति करण नाम के नौवें गण स्थान का स्वरुप कहते जह तं अपुवणाम अणियट्टी तह य होई गायत्रं । उघसम खाइग्र भावं हवेइ फुडु तम्हि वाणमिम ।। यथा तवपूर्वनाम अनिवृत्ति तथा च भवति जातव्यम् । औपशामिक क्षायिक भावी भवतः स्फुट तस्मिन् गुणस्थाने ।६४९) अर्थ- जिस प्रकार उत्तरोत्तर पूर्व अपूर्व परिगाहोने के कारण आठवे गण स्थान का नाम अपूर्व करण गुण स्थान है उसी प्रकार अति वृत्ति करण नाम का नौवा गुण स्थान समझना चाहिये । इस गुण स्थान में उत्तरोत्तर जो परिणामों की शुद्धता होती जाती है वह शुद्धता बढवी ही जाती है फिर कम नहीं होती। इसलिये इसको अनिवृत्ति करण कहते है जिसमें परिणाम को शुद्धता निवृत्त न हो सके, और बढ़ती ही अल. जाय -सको अनिवृत्ति करण कहते है इस गुण स्थान मे मी औपशमिक मात्र और क्षायिक भाव दोनों ही होते है । उपत्रम अंगी बाले को उपशम भाव होते है और क्षपक श्रेणी वाले के परिणाम प्रायिक होते ।। सुक्क तत्थ पउत्तं जिणेहि पुत्त लक्षणं झागं । त्थि णियत्तो पुनरवि जम्हा अणियदि तं तम्हा ।। शुक्ल तत्र प्रोक्तं जिनः पूर्वोक्त लक्षणं ध्यानम् । नास्ति निवृत्तिः पुनरपि यस्मात् अनियत्ति तत्तस्मात् ॥६५॥ अर्थ- भगवान जिनेन्द्र देव ने इस नौवे गुण स्थान मे भी पहले के अपूर्व करण गुण स्थान में कहा हुआ पहला शुक्ल ध्यान पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम का शुक्ल ध्यान कहा है । इस गुण स्थान में शुद्ध

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