Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 488
________________ भाव-संग्रह २७३ किन्तु कर्मों का उपशम करते जाते हैं तथा ग्यारहवें गुम स्थान में पहुंच कर उन कर्मों के उदय हो आने पर नीचे के गुण स्थानों में आ जाते है जगशम अंगी वालों के पमिक भाव ही होते है और क्षपक श्रेणी वालों के क्षायिक भाव ही होते है। आगे इस गुण में होने वाले ध्यान के भेद कहते है । खबएषु उबसमेसु य अपुषणामेसु हबइ तिपयारं । सुक्कझाणं णियमा पुहुत्त सवियस्क सवियारं ।। क्षपकेषु उपशमेषु चापूर्व नामसु भवति त्रिप्रकारम् । शक्लान नियमाद पथकल सवितर्क सविचारम ।। ६४३॥ अर्थ- इस अपूर्व करण नाम के आठवे गण स्थान में पहला शक्ल ध्यान होता है नथा उपशम श्रेणी वाले के और क्षपक श्रेणी वाले के दोनों के ही पहला शुक्ल ध्यान होता है । वह शुक्ल ध्यान नियम से तीन प्रकार होता है । पृथस्व, सवितर्क और सवीचार । आग पृथक्त्व का लक्षण कहते है। पजायं च गुणं वा जम्हा नव्याण मुणइ भेएण । तहमा पुहुत्तणाम भणियं शाणं मुणिदेहि ।। पर्यायं च गुणं वा यस्माद् वव्याणां जानाति भेटेन । तस्मात्पृथक्त्वनाम माणितं ध्यानं मुनीन्द्रः ।। ६४४ ।। श्रुते चिता वितर्क; म्याद्विचारः संक्रमो मतः । पृथक्त्वं स्यादनेकल्वं भवतेत् क्रियात्मकम् || अर्थात्- श्रुत ज्ञान का चितवन करना वितर्क है संक्रमण होना विचार है और अनेकत्व होना पृथक्त्व' है इस प्रकार पहला शुक्ल ध्यान तीन प्रकार का होता है। द्रव्याद् द्रव्यान्तरं यति गुणादगुणांतरं ब्रजेत् । पर्यायादन्य पर्याय सपृथक्त्वं भवत्यतः ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531