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भाव-संग्रह
प्रेक्ष्य परमहिलाः धनस्तन मदनयन चन्द्रवदनानि । ताडयति निजं शीर्ष सूरयति हृदये दीनमुखाः ॥५७५ ।। पर संपया गिएक पमणइ हो कि मया ण विष्णाई | बागाई पर पत्ते उसमस भत्ती य जुत्तण ||
पर सम्पदः दृष्टवा प्रणमति हाकिं मया न दत्तानि । वनानि प्रवर पात्रे उत्तम भक्त्या युक्तेन ॥ ५७६ ।।
अर्थ- जिन पूजन और पात्र दान न देने वाले पुरुष परभव में जाकर इतने दीन दुखी होते है कि वे लोग जिनके स्तन अत्यन्त कठिन है जिनके नेत्रों मे मद छाया हुआ है और चन्द्रमा के समान जिनका सुन्दर मुख हैं ऐसी पर स्त्रियों को देखकर अपने मस्तक को धुना करते है और दीन मुख होकर अपने हृदय में रोया करते है । इसके सिवाय दूसरों की संपत्ति को देखकर वे लोग रो रो कर कहते हैं कि हाय हाय क्या हमनें पहले उत्तम क्तिपूर्वक उत्तम पात्रों को दान नही दिया था । यदि पहले भव में हमने भी पात्र दान दिया होता तो हमे भी ऐसी संपत्तियां अवश्य प्राप्त होती ।
एवं पाऊण फुड लोहो उवसानिऊण नियचिते । for वित्ताणुस्वारं दिज्जह दाणं सुपसेसु ||
एवं ज्ञात्वा स्फुटं उपशम्य निज चिते । निज विसा नुसारं देहि दानं सुपात्रेषु ।। ५७७ ।।
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अर्थ - इस प्रकार पात्र दान के फल को जानकर और पात्र दान न देने के फल को जानकर अपने हृदय मे लोभ को दबाना चाहिये, लोभ नहीं करना चाहिये और अपने घन संपत्ति के अनुसार सुपात्रों को अवश्य दान देना चाहिये ।
आगे कमाये हुए द्रव्य को किस प्रकार खर्च करना चाहिये सो कहते है ।
जं उप्पज्जई बव्यं तं कायव्यं व बुद्धिवंत्तेण । छहणाथगयं सव्यं पढमो भावो हि धम्मस्स !!