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भाव-संग्रह
ध्यय विविध प्रकारं अक्षर रुपं तथाऽरुपं च । रुपं परमेष्ठिगतं अक्षरकं तेषामुच्चारणम् ।। ६३१ ॥ गतरुप पद्ध्येयं जिनर्भणितमपि तन्निरालम्वम् शून्यमपि सन्न शून्यं यस्माद् रत्नत्रयाकीर्णम् ।। ६३२ ।।
अर्थ- जिसका ध्यान किया जाता है उसको ध्येय कहते है वह यय तीन प्रकार का है । अक्षर, रुप और अरूपी जो पंच परमेष्ठी का ध्यान करना है तथा उन पर मेष्ठी के बाचक अक्षरों का उच्चारण करना हैबह अक्षर रूप ध्यान कहलाता है तथा जी रत्नत्रयस्वरूप निरालंच ध्यान किया जाता है जो रत्नत्रय से ओतप्रोत भरा हआ है और इसीलिये जो शून्य होकर भी शून्य नहीं कहलाता उस ध्यान को भगवान जिनेन्द्र देव ने रूपातीत ध्यय बतलाया है ।
आगे ध्यान का फल बतलाते है। शाणस्स फलं तिविहं कहंति पर जोइणो विगयमोहा । इह भव पर लोय भवं सव्वं कम्मक्लए तइयं ।। ध्यानस्य फलं निविधं कथयन्ति वर योगिनो विगतमोहाः । इह भव परलोक भवं सर्व कर्मक्षये तृतीयम् ।। ६३३ ।। अथ.. राग द्वेष और मोह रहित परम योगी पुरूषों ने ध्यान का
इन्द्रियाणि विलीयन्से मनो यत्र लयं व्रजेत। ध्यानं ध्येय विकल्पेन तद्ध्यान रूप जितम् ।। अमूर्तमजमव्यक्तं निर्विकल्पं चिदात्मकम् । स्मरेद्यत्रात्मनात्मान रूपातीतं च तद्विदुः ।।
जहां पर इन्द्रियों की प्रवृत्ति नष्ट हो जाय मन की प्रवृत्ति नष्ट हो जाय जहां पर ध्यान और ध्येय का अगल अलग विकल्प न हो. जो ध्यान अमृत आत्मा का किया जाय जो ध्यान अव्यक्त हो, विकल्प रहित हो शुद्ध चैतन्य स्वरूप हो । इस प्रकार जो अपने आत्माके द्वारा अपने ही शुद्ध आत्मा का चितवन करना रूपातीत ध्यान है ।