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भाव-संग्रह
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वा एक अक्षर मन्त्र का जप करना वा अधिक अक्षरों के मंत्र का जप करना भी पदस्थ ध्यान कहलाता है। यह पदस्थ ध्यान कर्मों के नाश करने का सावन है। भावार्थ- पणतीस सोल छप्पण चद् दुग मेगं च जवह झापट ! परमेट्रि वागणं अगणं च गरु वएसेण । अर्थात्-णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहणं यह तीस अक्षर का मंत्र है । अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्व साधुभ्यानमः यह सोलह अक्षर का मंत्र है । अ सि आ उ सा यह पांच अक्षर का मंत्र है । अरहंत यह चार अक्षर का मंत्र है। सिद्ध यह दो अक्षर का मंत्र है यह एक अक्षर का मंत्र है । अ अरहंत का पहला अक्षर है, सि सिद्ध का पहला अक्षर है. आ आचार्य का पहला अक्षर है। ज उपाध्याय का पहला अक्षर है और सा साधु का पहला अक्षर है । इसी प्रकार ओं भी पंच परमेष्ठी का याचक है।
अरहंसा असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो । पदम क्खर णिप्पणो ओंकारो पंच परमेष्ठी ।।
अर्थ- अरहंत अशरीरा अर्थात् सिद्ध आचार्य उपाध्याय और मुनि इन पांचों परमेष्ठियों का पहला अक्षर लेकर संधि करने स पंच परमेष्ठी का वाचक ओं सिद्ध हो जाता है । यथा अ-अ.आ, आ
= आ । आ+ उ ओ । ओ-म्... ओम् । इस प्रकार ओं पंच परमेष्ठी का वाचक है।
इस प्रकार पदस्थ ध्यान का स्वरूप कहा । अब आगं रूपातीत ध्यान का स्वरूप कहते है।
णीय चितइ बेहत्थं देह वहित्यं ण चितए कि पि । ण सगय परगयरूबं तं गमहवं णिरालेवं ॥ मच चिन्तयति बेहस्थं वेह बाह्यस्यं न चिन्तयेत् किमपि । न स्वागत परगत रूप तद्गतरूपं निरालम्बम् ।। ६२८ ॥
अर्थ- जोन तो शरीर में स्थित शुद्ध आत्मा का चितवन करता ने शरीर के बाहर शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है न स्वगत आत्मा का