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भान-संग्रह
पुग्यवनोत्पद्यते कथमपि पुरुषश्च भोगभूमीयू |
भुं तत्र भोगान् दशकल्पतरुद्भवान् दिव्यान् ॥ ५८७ ॥
अर्थ - पुण्य कर्म के उदय से ही यह जीव किसी प्रकार भोग भूमि में भी उत्तम पुरुष उत्पन्न होता है और वहां पर दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए दिव्य भोगों का अनुभव करता है ।
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गिह तरुवर बरगेहे भोयण रुक्खाय भोयणे सरिसे । कणमय भायणाणिय भायण रुक्खा पयच्छन्ति || गृहतश्वरा बरगृहानपि भोजन वृक्षाश्च भोजनानि सरसेनि । कनकमने भाजनानि च भाजन वृक्षा प्रयच्छन्ति ॥ ५८८ ॥
अर्थ- वहां पर दश प्रकार के कल्पवृक्ष है। उनमें से गृह जाति के कल्पवृक्ष उत्तम उत्तम घर देते है भोजन जाति के वृक्ष सरस भोजन देते है और भाजन जाति के वृक्ष सुवर्णमय पात्र वा वर्तन देते है ।
कुसुम
वत्यंगा वर वेत्थे कुसुमंगा दिति मालाये | दिति सुगंध विलेवण विलेयगंगा महारुक्त्वा || वस्त्रांगा वर वस्त्राणि कुसुमांगा ददाति कुसुमसालाः । वदति सुगंध विलेपनं विवेपनांगा महावृक्षाः । ५८९ ।।
अर्थ- वस्त्रांग जाति के वृक्ष अनेक प्रकार के सुन्दर वस्त्र देते है पुष्यांग जाति के वृक्ष पुष्प वा पुष्पो की मालाएं देते है और विलेपनांग जाति के वृक्ष सुगंधित विलेपन उबटन आदि देते है ।
तुरंगा वर तुरे मजगादिति सरस मज्जाई । आहारगंगा बितिय आहरणे कणमर्माणि जडिए ।
सूर्यागा वर तौर्याणि मद्यांगा ददाति सरस मद्यानि 1 आवरणांगा ददति व आभरणानि कनकमणि जटितानि ||५९० ।।
अर्थ- वाद्यंग जाति के वृक्ष तुरई आदि अनेक प्रकार के बाजे देते है, मद्यांग जाति के वृक्ष सरस पौष्टिक मद्य ( एक प्रकार का रस जो केवल पोष्टिक होता है ) देते है और आभरणांग जाति के वृक्ष अनेक प्रकार के मणियों से जडे हुए सुवर्णमय आभूषण देते है ।