Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 470
________________ भाव-संग्रह २५५ है वे वहां के भोगों को भोग कर आय के अन्त मे भवन वासी व्यन्तर या दयोतिष्क देवों में उत्पन्न होते है । भोग भूमियों में उत्पन्न होने वाले जीव सत्र मंद कषाय वाले होते है इसलिये वे मर कर देव ही होते है । केई समवसरणगया जोइस भावेण सुचितरा देवा । कहिऊण सम्भवंसण तस्य चुया हुंति वा पुरिसा ।। केचित्सनवसरणागता ज्योतिष्क भावनाः सुन्यन्तरा देवाः । गृहीत्वा सम्यग्दर्शन ततश्च्युता भवन्ति या पुरुषाः ।। ५९५ ॥ अर्थ- उन भवन वासी व्यन्तर ज्योतिषी देवों में से कितने ही देव भगवान के समब सरण मे जाकर सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते है और फिर वहां से आयु पूर्ण होने पर उत्तम सनुष्य होते है। लहिऊण देस मंजम सयल वा होइ सुरोत्तमो सरगे । भोत्तूण सुहे रम्मे पुणोवि अवयरइमणुयते ।। लकवा देश संयम समजा भतिलोतमः हो । भुत्का शुमान् रम्यान् पुनरपि अवतरति मनुजत्वे ।। ५९६ ।। अर्थ- मनुष्य होकर वे जीव देश संयम धारण करते है अथवा सकल संयम धारण कर स्वर्गों में उत्तम देव होते होने है । वहां पर वे मनोहर सुखों का अनु - व कर आयु के अन्त में फिर भी मनुष्य भव धारण करते है । तत्मवि सुहाई भुत्तं दिक्खा गहिजण भविय णिग्गंयो । सुक्कज्माणं पाषिय कम्म हणिऊण सिज्मेई ।। सत्रापि शुभान् भुत्का दीक्षा गृहीत्वा भूत्वा निग्रंथः । शुल्लध्यान प्राप्य कर्म हत्या सिद्धति ।। ५९७ ।। अर्थ- उस मनुष्य भव मे भी अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव करता है। तदनन्तर दीक्षा धारण कर निर्गथ अवस्था धारण करता है तथा शुक्ल ध्यान को धारण कर समस्त कर्मों का नाश करता है और अन्त में सिद्ध प्राप्त कर लेता है।

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