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भाब-संग्रह
है और जिसका चित्त अत्यन्त स्थिर है, ऐसा साधु घ्यान करने योग्य ध्याता कहलाता है।
आगे ध्यान का स्वरूप कहते है। चितणिरोहे झाणं चहुवियभेयं च तं मणेयत्वं । पिडत्थं च पयत्थं रुवत्थं कववज्जियं चेव ।। चित्त निरोधे घ्यानं चतुर्विध मेद च तन्मन्तव्यम् । पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं रूप बजितं चैव ।। ६१२ ।।
अर्थ- चित्त का गिरोध करना ध्यान है अर्थात् चित्त मे अन्य समस्त चितवनों का त्याग कर किसी एक ही पदार्थ का चितवन करना उस एक पदार्थ के सिवाय अन्य किसी पदार्थ का चितवन न करना ध्यान कहलाता है। उस ध्यान के चार भेद है पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ पातीत ।
आगे पिंडस्थ ध्यान को कहते है । पिडो चुच्चइ देहो तस्स मज्झठिओ हु णियअप्पा | झाइज्जइ अइसुद्धो निष्फुरिओ सेय किरणटो ।। पिण्ड उच्यते देहस्तस्य मध्यस्थितो हि निजात्मा । ध्यायते अति शुद्धो विस्फुरितः सित किरणस्थ: ।। ६२० ।।
अर्थ- यहां पर पिड शब्द का अर्थ शरीर है, उस शरीर के मध्य में विराजमान अपने आत्मा का ध्यान करना चाहिय । तथा वह अपना आत्मा अत्यंत शुद्ध है, उगमे में सफेद किरणें निकल रही है और वह अत्यन्त दैदीप्यमान हो रहा है ऐसे अपने आत्मा का चितवन करना चाहिय ।
देहत्थो झाइज्जइ देहस्संबंध विरहिलो णिसचं । जिम्मल तेय फुरंतो गयणतले तर विवेव ।। ६२१ १ जीवापसपचयं पुरिसायारं हि विययवहत्थं । अमलगणं हायंत माणं पिबत्य अभिवाणं ।। ६२२ ।।