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भाव-संग्रह
अथवा निजं वित्तं कस्यापि मा देहिं भव लुब्धः । स कमपि कुरु उपायं तथा तव द्रव्यं समं याति ॥ ५८१ ॥
अर्थ - अथवा प्रत्येक गृहस्थ को अपना द्रव्य किसी को भी नहीं देना चाहिये और अत्यंत लोभी बनकर कोई भी ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे कि वह द्रव्य मरने के बाद भी अपने साथ चला चले |
आगे कौनना द्रव्य अपने साथ जाता है और कनिला नष्ट हो जाता है सो कहते है ।
तं दव्वं जाइ समं जं खोणं पुज्ज महिम दाणेह | जं पुण धरा हि णट्टे ते जाणि नियमेण ||
२५१
तद्द्रव्यं याति समं यत् क्षीणं पूजा महिम दानैः । यत्पुनः घरानिचितं नष्टं तज्जानीहि नियमेन ।। ५८२ ।।
अर्थ- जो द्रव्य भगवान जिनेन्द्रदेवकी पूजा में खर्च होता है, जो द्रव्य धर्म की महिमा बढाने में, धर्म की प्रभावना करने मे खर्च होता है और जो द्रव्य पात्र - दान में खर्च होता है वही द्रव्य परलोक मे अपने साथ जाता है । तथा जो द्रव्य पृथ्वी से गाढ़ कर रख दिया जाता है । उसको नियम पूर्वक नष्ट हुआ समझो ।
आगे पृथ्वी मे गढा घन कैसे नष्ट होता है सो कहते हैं ।
सह ठाणाओ मुल्लह अह्वा भूसेहि णिज्जए तं पि । अह भाओ अह पुस्तो चोरो तं लेई अह राओ ||
स्वयं स्थानं विस्मरति अथवा मूषकैः नीयते तदापि । अय भ्राता अथ पुत्रः चोर स्तत् गृणाति अब राजा || ५८३ ।।
अर्थ- जो पुरुष पृथ्वी में धन गाढ कर रखता है वह या तो स्वयं उस स्थान को भूल जाता है अथवा चुहे उस द्रव्य को लेकर दूसरे ले स्थान पर रख देते है, अथवा उसे भाई बन्धु ले जाते है अथवा पुत्र जाता वा चोर ले जाते है और इनसे भी बच रहता है तो उसे राजा ले लेता है ।
अथवा -