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अहया तरुणी महिला जायइ अण्णेण जार पुरिसेण । सह तं गिरिहय दव्वं अण्णं देनंतर दुठ्ठा ॥
अथवा तरुणी महिला याति अन्येन जारपुरुषेण सह तद् गृहीत्वा ब्रव्यं अनन्यद्देशान्रं दुष्टा ।। ५८४ ।।
अर्थ - अथवा अपनी दुष्ट तरुण स्त्री उस समस्त द्रव्य को लेवान किसी अन्य जार पुरुष के साथ दुर देशांतर को भाग जाती है । इस प्रकार अनेक प्रकार से बह गढा हुआ धन नष्ट हो जाता है। आगे द्रव्य का सदुपयोग बतलाते हैं ।
इय जाणिकण णूणं बेह सुपत्लेसु चहुविहं दाणं । जह कय पावेण सया मुच्येह लिथेव् सुपुण्णेण ।। इतिज्ञात्वा नूनं हि सुपात्रेषु चतुविधं दानम् । यथाकृतपान मुक्त लिप्पेत सुपुष्येन ।। ५८५ ।।
अर्थ - इस प्रकार निश्चय रीति से समझ कर सुपात्रों के लिये चारों प्रकार का दान देना चाहिये । जिससे कि किये हुए पापों का नाश हो जाय और श्रेष्ठ पुण्य का उपार्जन हो ।
आगे दान से उत्पन्न होने वाले पुण्य का फल बतलाते हैं ।
पुणेण कुलं विजलं कित्ती पुष्णेण भम तियलोए । पुण्ण रूपमतुलं सोहागं जोवणं तेयं ॥
भात्र-संग्रह
पुण्येन कुलं विपुलं कीर्तिः पुण्येन भ्रमति त्रिलोके । पुष्पेन रूपवल सौभाग्यं तेजः ॥ ५८६ ।।
अर्थ-- इस संसार में पुण्य के उदय से उत्तम कुल की ओर बहुत मे कुटुम्ब की प्राप्ति होती है, पुष्य के ही उदय से इस मनुष्य की कार्ति तीनों लोकों में फैल जाती है पुण्य से ही सर्वोत्तम उपमा रहित
प प्राप्ति होती है, पुण्य से ही सुहाग की प्राप्ति होती है पुण्य से ही युवावस्था प्राप्त होती है और पुण्य से ही तेज की प्राप्ति होती है ।
पुण्णव लेणुब बज्ज कहयबि पुरिसोय भोय भूमीसु । मुंजे तत्थभोए वह कम्पतभवे हिच्वे ।।