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भाव-संग्रह
ज - मय मांस मधु का त्याग और पांच उदंबरों का त्याग ये देववितियों के आठ मूलगुण कहलाते है।
आग इम गुणस्थान में होने वाले ध्यान बतलाते है । अट्टर जई झाणं भई अस्थिति तम्हि गुणठाणे । वह आरंभपरिजगह जुत्तस्स य णस्थि तं धम्म । आर्त रौद्रं ध्यान र अस्तीति अम्मिन गणस्थाने । बहुवारम्भ परिग्रह युदतस्य च नास्ति तद्धय॑म् ।। ३५७ ।।
अर्थ- इस पांचवे गुपारथान मे अर्तध्वान रौद्रध्यान और भद्रध्यान ये तीन प्रकार में ध्यान होते : इस गुणस्थान वाले जीव के बहुतसा आरंभ होता है और बहुतमा ही परिग्रह होता है इसलिये इस गुणस्थान में धर्मध्यान नहीं होता ।
धम्मेवएण जीवो असुहं परि चयइ सुहगई लेई । कालेण सुक्ख मिल्ला इंदियवल कारणं जाणि || धर्मोदयेन जोवोऽशमं परित्यजति शुमति प्राप्नोति । कालेन सुखं मिलति इन्द्रियवलि कारणं जानीहि ॥ ३५८ ।।
अर्थ-- धर्म सेवन करने से इस जीव के अशुभ परिणाम और अशुभ गतियां आदि नष्ट हो जाती है । और शुभ गति प्राप्त होती। तथा समयानुसार इन्द्रियों को बल देने वाला सुख प्राप्त होता है ।
आगे आर्तध्यान को वतलाते है। इठ विओए अट्ट उप्पजद्द तह अणिठ्ठसंजोए । रोय पकोवे तइयं णियाण करणे चउत्यं तु ॥ इष्ट वियोगे आंत उत्पद्यते तथा अनिष्ट संयोगे । रोगप्रकोप तृतीयं निदानकरणे चतुर्थ तु ॥ ३५९ ।।
अर्थ- किसी इष्ट पदार्थ के वियोग होने पर उसके संयोग का चितवन करना पहला आर्तध्यान है । किसी अनिष्ट पदार्थ के संयोग होने पर उसके वियोग होने का बार बार चितवन करना दूसरा आतं--