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भाव-संग्रह
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इय संखेवं कद्वियं जो पूय गंध दीव धूवेहिं । कुसुमेहि जवइ जिचं सो हणइ पुराणयं पावं || इति संक्षेप कति यः पूतिगन्धवरेप धूपैः । कुसुमैः जपति नित्यं स हन्ति पुराणकं पापम् ।। ४४७ ।।
अर्थ - इस प्रकार संक्षेप से सिद्ध चक्र का विधान कहा। जो पुरुष गंध दीप धूप और फूलों से इस यंत्र की पूजा करता है तथा नित्य इसका जप करता है वह पुरुष अपने संचित किये हुए समस्त पापों का नाश कर देना है।
जो पुणु वड्डद्वारों सब्बो भणिओ हु सिद्धचक्कल्स । सो एइ ण उद्धिरिओ इव्हि सामगि ण हु तस्स ॥
त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स हृल्ल नः इस क्रम से लिखना चाहिये । तथा इन्हीं दलों में सोलह स्वरों में से प्रत्येक दल में दो स्वर लिखना चाहिये तथा इन्हीं दलों के अंत भाग में अनाहत मंत्र लिखना चाहिये । तथा उन आठ दलों के मध्य में जो आठ संधियां है उनको तत्त्व से सुशोभित करना चाहिये । " णमो अरहंताणं " इस मंत्र को तस्व कहते है । अर्थात् आठो संधियों में णमो अरिहंताणं लिखना चाहिये | फिर तीन वलय देकर मंडल से वेष्टित करना चाहिये फिर क्षिति बीज और इन्द्रायुध लिखना चाहिये । इस प्रकार यंत्र रचना कर सिद्धचक्र का ध्यान करना चाहिये ।
१ जो जीव इस सिद्ध चक्र का ध्यान करता है वह श्रेष्ठ मोक्ष पदको प्राप्त होता है । यह सिद्ध चक्रदेव शत्रुरूपी हाथियों को जीतने के लिये सिंह के समान है ।
अनाहत का लक्षण
उ विन्द्वाकार हरोर्ध्वरेक विद्वानवाक्षरं । मालाः स्पन्दिपीयूष विन्दु विदुरनाहृतम् ॥ उ, अनुस्वार, ईकार, ऊर्ध्व रकार, हकार, हकार, निम्न रकार अनुस्वार ईकार इन दो अक्षरों से अनाहत मंत्र बनता है ।