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भाव-संग्रह
य: पुनः सतिधन फनके मुनिभ्यः कुभोजनं ददासि । जन्मनि जन्मनि वारिद्रय दहनपृष्ठं न तस्य त्यति ।। ५१६ ॥
अर्थ- जो पुरुष अन्न घन आदि के होते हुए भी मुनियों को कुमका देशा उनको दरिद्रता अनेक जन्मों तक भी नहीं छीनी अर्थात् वह अनेक जन्म तक दरिद्री बना रहता है।
आगं आहार दान के लाभ वतलाते हैं । देहो पाणा हवं विज्जा धम्म तवो सुहं मोक्खं । सव्वं दिगणं णियमा हवेइ आहारदाणेण ।। देहः प्राणा: रुपं विद्या धर्म: तपः सुखं मोक्षः । सर्व दत्तं नियमात् भवेत् आहारदानेन ।। ५१७ ।।
अर्थ- शरीर, प्राण, रुप, विद्या, धर्म, तप, सुख और मोक्ष ये सब आहार के ऊपर निर्भर है । इस लिये जो भव्य पुरुष यतियों को आहार दान देता है वह नियम से शरीर, प्राण, रुप, विद्या, धर्म, तप, सुख मोक्ष आदि सबका दान देता है ऐसा समझना चाहिये।
भुक्खं समा गहु वाही अण्णसमाणं य ओसहं गस्थि । तम्हा अहार दाणे आरोगत्तं हवे दिण्णं ।। वभुक्षासमो नहि ध्याधि: अन्नसमाण च औषधं नास्ति । - तरमादाहारदानेन आरोग्यत्वं भवेद्दत्तम् ।। ५१८ ॥
अर्थ- इस संसार में भूख के समान अन्य कोई व्याधि नहीं है और अन्न के समान कोई औषधि नहीं है। इस लिये जो भव्य आहार दान देता है वह पुरुष आरोग्य दान भी देता है ऐसा अवश्य समझना चाहिये।
आहार मओ वेहो आहारेण विणा पडेइ णियमेण । तम्हा जेणाहारो दिण्णो देहो हबे तेण ॥ आहार मयो देहः आहारे बिना पति नियमेन । तस्मात्येता 5 हारो दत्तो बेहो भवेत्तेन ।। ५१९ ।।