________________
भाव-सग्रह
आदि का दान देने से दान लेने वालों को उतनो तप्ति नहीं होतो जितनी तृप्ति सदाकाल आहार दान देने से होती है ।
आगे और भी कहते है।
जह रयणाण बइर सेलेसु य उत्तमो जहा मेरू । तह दाणाणं पवरो आहारो होइ णायचो ॥ ५२६ ।। यथा रस्नानां वनं शैलेषु च उसमो यथा मेरुः । तथा दानानां प्रवरः आहारो भवति ज्ञातव्यः ।। ५२६ ।।
अर्थ- जिस प्रकार समस्त रत्नों में बन रत्न उत्तम है, और ममम्त पर्वतों में मेरु पर्वत उत्तम है उसी प्रकार समस्त दानों में आहादान सबसे उत्तम है ऐसा समझना चाहिये ।
आगे आहार दान देने की विधि बतलाते है।
सो दायवो पत्ते विहाण जुत्तेण सा विही एसा । पडिगह मच्चठ्ठाणं पादोदय अच्चणं पणामं च ।। ५२७ ।। तत् वातव्य पात्रे विधान युक्तेन स विधिरेषः । प्रतिग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमसनं प्रणामं च !! ५२७ ।। मणवयण कायसुद्धी एसणसुखी य परम कायव्वा । होइ फु आपरणं णविहं पुण्य कम्मेण ॥ ५२८ ।। मनो वचन काय शुद्धि रेषण शुद्धिश्च परमा कर्तव्या ।
भवति स्फुटमाचरणं नवविध पूर्वकर्म णा ।। ५२८ ।।
अर्थ- वह आहार दान पात्र को ही देना चाहिये और विधिपूर्वक ही देना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार है ! प्रतिग्रह उच्चस्थान, पादोदक, अर्चन, प्रणाम, मन शुद्धि, बचन्त शुद्धि काय और आहार शुद्धि इस प्रकार नवधा (नौ प्रकार) भक्ति पूर्वक आहार देना चाहिये ।
जब मुनि अपने समय पर वा ष.बकों के घर भोजन वन जाने के समय पर चर्या के लिये निकलते है तब वे प्रायः श्रावकों के घर के सामने होकर निकलते हैं। जिससमय मुनि अपने घर के सामने आ