Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 458
________________ भाव-संग्रह २४३ तथा उसको मनग्य समझकर इस खेत में जानवर आकर नहीं खाते । इस प्रकार बह पुतला न तो दूसरों को खाने देता है और न स्वयं कुछ खाता है। उसी प्रकार जो न तो दान देता है और न स्वयं खाता पोता है वह पुरुष फुस के पुतले के समान दूसरों के लिय धनका रक्षा करता रहता है। किविणेण संचयधणं ण होई उवयारियं जहा तस्स । महरि इव संचियमहु रंति अण्णे सपाहि ।। कृपणेन संचित धनं न भवति उपकारकं यथा तस्य । मधुकरेण इव संचितमधु हरन्यि अन्ये सपाणयः ।। ५५९ ।। अर्थ- जिस प्रकार मधुमक्खी अपने छत्ते मे मधु वा शहद को इकट्ठा करती है परन्तु वह स्वयं उसका उपभोग नहीं करती । इसलिये दुसरे मनुष्य आकर उस छत्त को तोडकर उसका इकट्ठा किया हुआ शहद भी ले जाते है और सैकड़ों हजारों मक्खियों को मार भी जाते है इसी प्रकार जो कृपण मनुष्य केवल धन को इकट्ठा करता रहता है उसका धन उसके काम में कभी नहीं आता । वह दूसरे के ही काम आता है। आगे कृपण के लिये और भी कहते है । कस्स थिरा इह लच्छि कस्स थिर जुवणं धणं जीयं । इय मुणिऊण सुपुरिसा दिति सुपत्तेसु दाणाई । कस्य स्थिरेह लक्ष्मीः कस्य स्थिरं यौवनं धनं जीवितम् । इति ज्ञात्वा सुपुरुषा ददति सुपात्रेषु वानानि ॥ ५६० ॥ अर्थ- इस संसार मे लक्ष्मी किसके यहां स्थिर रही है, यौवन किसका स्थिर रहा है, धन किसका स्थिर रहा है और अर्थात् लक्ष्मी यौवन धन जीवन कभी किसी का स्थिर नहीं रहता। यही समझकर श्रेष्ठ पुरुषों को श्रेष्ठ पात्रों को सदा काल दान देते रहना चाहिये । आगे इसका कारण बतलाते है । दुक्खेण लहान वित्तं वित्ते लद्धे वि दुल्लहं चित्तं । लखे चित्ते वित्ते सुदुल्लहो पत्तलंभो व ।।

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