________________
भात्र संग्रह
और अपात्र इन दोनों का कभी दान नहीं देना चाहिये । क्योंकि इन दोनों को दान देना नि:सार ।।
आगे कुत्सित पात्रों को कहते है । जे रयणत्तय रहियं मिच्छमय कहियधम्म अणुलग्गं । जई बिहु तबइ सुधोरं तहावितं कुच्छ्यिं पत्तं ।। ५३० ।। तद्रलत्रयरहितं मिथ्यामत कथित धर्मानुलग्नम् । यद्यपि हि तप्यते सुधोरं तथापि तत् कुत्सितं पात्रम् || ५३० ।।
अर्थ- जो पुरुष रत्नत्रय से रहित है और मिथ्या मत में कहे हुए धर्म में लीन रहता है ऐसा पुरुष चाहे जितना घोर तपश्चहरण करे तथापि बह कुत्सित पात्र वा कुपात्र ही कहलाता है ।
आगे अपात्र को कहते है। जस्स ण तवो ण चरणं ण चावि जस्सत्यि वर गुणो कोई। तं जाणेह अपतं अफलं दाणं कयं तस्स ।। ५३१ ।। यस्य न तपो न चरणं न चापि यस्यास्ति घरगुणः कोऽपि । सज्जानीयावपात्रमफलं वानं कृतं तस्य ।। ५३१ ॥
अर्थ- जो न तो तपश्चरण करता है, न किसी प्रकार का चारित्र पालन करता है और न उसमें कोई अन्य श्रेष्ठ गुण है ऐसा पुरुष अपात्र वाहलाता है ऐसे अपरात्र को दान देना सर्वथा व्यर्थ है। उसका कोई फल नहीं होता है।
ऊसर रिवत्तं वीर्य सुस्खे रुखे य पीर अहिसेओ। जह तह दाणमपसे दिण्णं खुणिरत्ययं होई ।। ५३२ ।। ऊपर क्षेत्र वीजं शके वृक्षे छ नीराभिषेकः । यथा तथा दानमपात्रे दत्तं खलु निरर्थकं भवति ॥ ५३२ ॥
अर्थ- जिस प्रकार ऊसर पृथ्वीपर बोया हुआ वीज व्यर्थ जाता है और सके हए वृक्ष में पानी देना व्यर्थ जाता है उसी प्रकार अपात्र को दिया हुआ दान पर्वथा व्यथं जाता है ।