________________
भाव-संग्रह
२३३
उस समय श्रावक को कहना चाहिये कि हे स्वामिन् नमोस्तु नमोस्तु विष्ठ तिष्ठ
आहार जलं शुद्धं वर्तते अर्थात् हे स्वामिन् नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु इस प्रकार तीनवार हाथ जोडकर मस्तक झुकाकर नमस्कार करना चाहिये कि महाराज यहां ठहरिये उहरिये आहार जल शुद्ध है। इतना कहने पर जब वे खड़े होजांय तो तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिये और फिर कहना चाहिये कि महाराज घर पधारिये । इतना कहकर उस श्रावक की आगे चलना चाहिये । इसको प्रतिग्रह कहते हैं। घर जाकर उनको किमी ऊंचे स्थान पर पाटा या कुरर्सी पर बिठाना चाहिये । महाराज इस पर विराजो ऐसा कहकर विलाना चाहिये । इसको उच्चस्थान कहते हैं । तदनंदतर प्रासुक गर्म जलन किसी थाली में उनके पैर धोने चाहिये और चरणोदक को मस्तक पर एक अर्ध्य देकर उन मुनि की पूजा करनी चाहिये इसको जवन कहते है उसके अन्तर ग चाहिये कि महाराज मेरा मन शुद्ध है वचन शुद्ध है शरीर शुद्ध है और आहार शुद्ध है। आप चौका में पधारिये । इतने कहने पर वे चौका में चले जाते है। मुनि खडे होकर आहार लेते है इसलिये उनको खड़े होने के लिए एक पाटा बिछा रखना चाहिये जो हिले नहीं तथा उसके सामने किसी छोटी सी ऊंची चौकी पर या छोटी मेजपर एक बडा भगोना या तसला रखाना चाहिये जिसमे थोडी सूखी घास रक्खी हो यदि आहार लेते समय हाथ से पानी गिरे तो उसी में गिरे और घास रखने से इधर उधर छींटे नहीं जाते यह नववा भक्ति है और यथा योग्य सब ही पात्रों के लिये होती है ।
L
एवं विहिणा त्रुत्तं देयं वाणं तिसुद्ध भत्तीए ।
वज्जिय कुच्छित्रपतं तह व अपतं च णिस्सारं ।। ५२९ ।।
एवं विधिना युक्तं देयं वानं त्रिशुद्धि भक्तया । वर्जयित्वा कुत्सितपात्रं तथा चापात्रं च निसारम् ॥। ५२९ ।।
अर्थ - इस प्रकार नवधा भक्ति पूर्वक तथा मन वचन काय की
शुद्धता पूर्वक पात्रों को दान देना चाहिये, तथा कुत्सित पात्र वा कुपात्र