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पाद-संग्रह
यथा नोरभिक्षुगतं काले परिणमति अमृतरूपेण । तथा दानं परपात्रे फलति भोगः विविध : ॥ ५०३ ॥
अर्थ- जिस प्रकार ईख के खेत में दिया हुआ पानी अपने समय पर अमृतरुप ( मोठे रसरुप ) परिणत हो जाता है उसी प्रकार उत्तम पात्र को दिया हुआ दान अपने समय पर अनेक प्रकार के भोगों से
उतमरयणं खु जहा उत्तम पुरिसासियं च बहुमुल्लं । तह उत्तम पत्तगयं दाणं णिउणेहि णायत्वं ।। उत्तमरत्न खलु यथा उत्तम पुरुषाश्रितं च बहुमूल्पम् । तथोत्तमपात्रगतं वानं निपुणः ज्ञातव्यम् ।। ५०४ ।।
अर्थ- जिस प्रकार कोई उत्तम रल किसी उत्तम पुरुष के आश्रय मे बहूमूल्य माना जाता है उसी प्रकार किसी उत्तम पात्र को दिया हुआ दान विद्वान लोगों के द्वारा सर्वोत्तम माना जाता है ऐसा समझना चाहिये ।
किचिवि बेयमयं पत्तं किंचिति पसं तवोभयं परमं । तं पत्तं संसारे तारकर्य होइ णियमेण ।। किं किंचिदपि वेदमयं किंचिदपि पानं तपोमयं परमम् । तत्पात्रं संसारे तारकं भवति नियमेन ॥ ५०५ ॥
अर्थ- अन्य प्रकार से पात्रों के और भी दो भेद है। एक तो थोड वा वहत वेद को जानने वाले को वेदमय पात्र और दूसरे थोडा वहुत परमोत्कृष्ट तपश्चरण करने वाले को तपोमय पात्र ऐसे पात्र के दो भेद है, ये दोनों प्रकार के पात्र नियम पूर्वक संसार से पार कर देने वाले होते है।
आगे वेद क्या है और वेदभय पात्र कैसे होते है सो दिखलाते है। वेओ किल सिद्धंतो सस्सठ्ठा णवपयत्य छद्दब्बं । गण मम्गणठाणाबिय जीवट्ठामाणि सष्याणि ॥