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भाव-संग्रह
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अर्थ- उत्तम मनुष्य शरीर को पाकर वह चक्रवर्ती पद प्राप्त करता है चौदह रत्न और नौ निधियों को प्राप्त करता है छहों खंड पृथ्वी का पालन करता है और उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करता है ।
संपत्त बोहि लाहो रज्जं परिहरिय भविय णिग्गंथो । लहिकण सयलसंजम धरिकण महत्वया पंच ॥ संप्राप्तबोधिलाभः राज्यं परिहृत्य भूत्वा निग्रंथः । लब्ध्वा सफलसंयमं धृत्वा महाव्रतानि पंच ॥ ४८५ ।।
अर्थ - तदनंतर वह संसार शरीर और भोगों से विरक्त होकर रत्नत्रय को धारण करता है. राज्य का त्याग कर दीक्षा लेकर निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करता है सकल संयम को धारण करता है और पंच महाव्रती को धारण करता है ।
लहिऊण सुक्कझाणं उप्याइय केवलं वरं गाणं । सिझे णडुकम्मो अहिसेयं लहिय मेरुम्मि ||
लब्ध्वा शुक्लध्यानं उत्पाद्य केवलं वरं ज्ञानम् । सिध्यति नष्टकर्मा अभिषेक लब्ध्वा मेरौ ॥ ४८६ ॥
अर्थ - पंच महाव्रत धारण कर वह शुक्ल ध्यान को धारण करता है चारों घातिया कर्मों को नाश कर मोक्ष प्राप्त करता है। यदि वह फिर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ तो वहां से आकर तीर्थंकर होकर मेरु पर्वत पर अपना अभिषेक कराता है और फिर तपश्चरण कर केवल ज्ञान प्राप्त कर अनेक जीवों को मोक्षमार्ग में लगाकर मोक्ष प्राप्त करता है ।
इय पाउण विसेसं पुण्णं आयरइ कारणे तस्स । पावहणं जाम समलं संजमयं अप्पमत्तं च ॥
इति ज्ञात्वा विशेषं पुण्यं अभ्येत् कारणं तस्य । पापघ्नं यावत् सकलं संयम अप्रमत्तं च ॥ ४८७ ॥
अर्थ - यह सब पुण्य की विशेष महिमा समझकर जबतक सकल संयम प्राप्त न हो जाय तब तक समस्त पापों को नाश करने वाले और