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भाव-संग्रह
दाणेण पलभर मह सुइ जाणं व ओहिमनगाणं । तिवेय सहियं पच्छा वर केवलं जाणं ||
श्रुतदाणेण च लभते मतिज्ञानं च अवधि मनोज्ञानम् । बुद्धि तपोभ्यां च सहित पश्चारकेवलं ज्ञानम् ।। `४९१ ।।
अर्थ- जो पुरुष शास्त्रदान देता है, जिनागम को पढ़ाता है वह पुरुष मति ज्ञान श्रुतज्ञान दोनों को पूर्ण रूप से प्राप्त करता है, बुद्धि और तपश्चरण के साथ साथ अवधि ज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान को प्राप्त करता है ।
ओहदाण गरी अतुलिम बलपरक्कमोमहासत्तो । याहि विभुक्क सरीरो चिराउ सो होय तेयो || औषधानेन नरोऽतुलितबलपराक्रभो महोसत्यः | व्याधि विमुक्त शरीरशिवरायु: स भवति तेजस्थ: ।। ४९२ ।।
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अर्थ- जो पुरुष औषघ दान देता है वह अतुलित वा सर्वोत्कृष्ट बल और पराक्रम को धारण करता है महाशक्ति को धारण करता है, वह चिरायु होता है, तेजस्वी होता है और उसका शरीर समस्त रोग व्याधियों से रहित होता है ।
दाणसाहारं फलं को सक्कइ वण्णिऊण भूवणयले । दिणेण जण भोओ लग्भति मणिच्छिया सब्बे ॥
दानस्य आहारस्य फलं कः शक्नोति वर्णयितुं मुखमतले । दत्तं येन भोगा लभ्यन्ते मन इच्छिताः सर्वे ।। ४९३ ।।
अर्थ- इन तीनों लोकों में आहार दान के फल को वर्णन करते के लिये भला कौन समर्थ है। भावार्थ- आहार दान के फल को कोई
ज्ञानवान् ज्ञानदानेण निर्भयोऽभय दानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजाद्भवेत ॥
अर्थ- यह जीव ज्ञान दान से ज्ञाती होता है, अभयदान से निर्भय होता है अन्नदान से सुखी होता है और औषधदान से निरोग होता है।