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भाव-संग्रह
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अर्थ - उस गुरु मुद्रा को मस्तक पर रख कर पांचों स्थानों में अमृ ताक्षरों का निवेश करो। जिसकी धारा मे अमृत झर रहा है इस अकार उस गुरु मुद्रा को फिर चितवन करो ।
पावेण सह सरीरं बढ जं आसि झाण जळणेण । तं जायं जं छारं पवखालउ तेण मंतेण ॥
पापेन सह शरीरं पात्रं यत् आसीत् ध्यानज्वलनेन । तज्जातं यत्क्षारं प्रक्षालयतु तेन मंत्रेण ।। ४३१ ।।
अर्थ - उस ध्यान को ज्वाला से जो पापों के साथ शरीर जल गया था और उससे जो क्षार वा राख उत्पन्न हुई थी उसको उसी मंत्र से धो डालो |
पडिदिवस अं पानं पुरिसो आसवइ तिविह जोग । तं निद्दहरु णिरुत्तं तेण ज्माण संजुत्तो ॥
प्रति दिवस यन्यावं पुरुषः आश्रवति त्रिविध योगेन । तन्निर्दहति निःशेषं तेन ध्यानेन संयुक्तः || ४३२ ।।
अर्थ- यह पुरुष अपने मन वचन काय तीनों योगों से जो प्रति
दिन पाप कर्मों का आस्रव करता है उस आस्त्रव से आने वाले समस्त पाप कर्मों को वह पुरुष ऊपर लिखे अनुसार ध्यान धारण कर शीघ्र ही नाथ कर देता है ।
जं सुद्धो तं अच्या सकायरहिओ य कुणइ बहु कि पि । ते पुणो यिदेहं पुण्णाण्णवं चितए हाणो ॥
यः शुद्धः आत्मा स्वकावरहितश्च करोति न हि किमपि । तेन पुननिजदेहं पुण्यार्णवं चिन्तयेत् ध्यानी ।। ४३३ ।।
अर्थ - इस प्रकार जो अपनी आत्मा अपने शरीर से रहित होकर अत्यंत शुद्ध हो चुका है वह कुछ भी कार्य नहीं कर सकता इसलिये उस ध्यान करने वाले पुरुष को अपना शरीर एक पुण्य के समुद्र रूप चितबन करना चाहिये । भावार्थ- उस ध्यान करने वाले पुरुषने जो अपने शरीर को पाप सहित दग्ध करने रूप चितवन किया था उससे शरीर
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