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भाव-संग्रह
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अर्थ- तदनंतर अंगन्यास करना चाहिये। फिर अपने शरीर में में इन्द्र हूं ऐसी कल्पना करनी चाहिये और कंकण मुकुट मुद्रिका और यज्ञोपत्रीत पहनना चाहिये ।
पीढ मेरुं कप्पिय तहसोवरि ठाविऊण जिणपडिमा ।
पञ्चवलं बरहंत चिसं भावे भावेण ||
पीठ मेरुं कल्पयित्वा तस्योपरि स्थापयित्वा जिनप्रतिमाम् । प्रत्यक्षं अर्हन्तं चित्तं भावयेत् भावेन || ४३७ ॥
अर्थ - तदनंतर स्थापन किये हुए सिंहासन में मेरु पर्वत की कल्पना करनी चाहिये, उस सिंहासन पर भगवान जिनेंद्रदेव की प्रतिमा विराजमान करना चाहिये और फिर अपने चित्त में अपने निर्मल भावों से य साक्षात् भगवान् अरहंत देव है ऐसी भावना करनी चाहिये ।
फलस उक्कं ठाविय चउसु वि कोणेसु गोरवरिपुवणं । घय बुद्ध बहिय भरियं णव सयदलछष्णमुहकमलं ॥
कलश चतुष्कं स्थापयित्वा चतुर्ष्वपि कोणेषु नीरपरिपूर्ण । घृतग्वदविभृतं नवशदलच्छन्न मुखकमलम् ।। ४३८ ।।
अर्थ - तदनंतर चारों कोनों में जल से भरे हुए चार कलश करने चाहिये तथा मध्य मे पूर्ण कलश स्थापन करना चाहिये । इनके सिवाय घी दूध दही इनसे भरे हुए कलश भी स्थापन करने चाहिये । इन सब कलशों के मुख पर नवीन सौ दल वाले कमल रखने चाहिये ।
आवाहिऊण देवे सुरवर सिहिकाल पेरिए वरुणे । पवणे जस्ले ससूली सपियसवाहणे ससत्ये य ||
आहूय देवान् सुरपतिशिखिकालनैऋत्यान् वरुणान् । पवनान् यक्षान् सशूलिनः सप्रियसवाहनान् सशस्त्रांश्च ।। ४३९ ।।
अर्थ- तदनंतर इन्द्र अग्निं यम नेॠत वरुण पवन कुबेर ईशान धरणीन्द्र और चन्द्र इन दश दिक्पालों की स्थापना कर अर्घ्य चढाना चाहिये | इन दश दिक्पालों को उनकी पत्नी वाहन और शस्त्रों सहित स्थापना करनी चाहिये ।