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भाव-संग्रह
एवं तत्सालम्वं धर्मध्यानं भवति नियमेन ।
आयमानानां जायते विनिर्जरा अशुभकर्मणाम् ।। ३८० !!
अर्थ- आर लिन इन पांचों परमेष्ठियों का ध्यान करना नियम पूर्वक आलंबन सहित धबध्यान कहलाता है। इन पांचों परमेष्ठियों का ध्यान करने में अशभ कमों को विशेष निर्जरा होती है।
आगे निरालंब ध्यान के लिये कहते है । जे पुणु वि निराध संहाणं गागाय गुणठाणे । चलेगहस्स जायइ धरियं जिणलिंगरुवस्स ।। यत्पुनरपि निरालम्वं तध्यानं गतप्रमादगणस्थाने । त्यक्त गृहस्य जायते घृजिलिंगपुरुषस्य ।। ३८१ ।।
अर्थ- जो गृहस्थ अवस्थाको छोडकर जिनलिंग धारण कर लेता है । अर्थात् दीक्षा लेकर निग्रंथ मुनि हो जाता है और जो मुनि होकर भी अनमन्त नाम के सातवें गुणस्थान मे पहुंच जाता है तब उसीके निरालंब ध्यान होता है । गृहस्थ अवस्था में निरालंब ध्यान कभी नहीं हो सकता ।
जो भणइ को वि एवं अस्थि मिहत्थाण णिन्धलं नाणं । सुद्धं च णिरालंबं ग मुणइ सो आयमो अइणो ।। यो भणति कोप्येवं अस्ति गृहस्थानां निश्चलं ध्यानम् । शुद्धं । निरालम्वं न मनुते स आगमं यतीनाम् ।। ३८२ ।।
अर्थ- यदि कोई पुरुष यह कहै कि गृहस्थों के भी निश्चल, निरा लव और शुद्ध ध्यान होता है तो समझना चाहिये कि इस प्रकार कहने बाला पुरुष मुनियों के शास्त्रा को ही नहीं मानता है।
कहियाणि रिठिवाए पजुच्च गुणठाण जाणि माणाणि | तम्हा स देस विरओ मुक्खं धम्म ण झाएई ।। कथितानि दृष्टिवावे प्रतीत्य गुणस्थानानि जानीही ध्यानानि । सस्मात्स देशविरतो मुल्य धर्म न ध्यायति ।। ३८३ ।।