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भाव-संग्रह
पूजा करने वाले को दर्मासन पर बैठकर ऊपर लिखा मंत्र पड़ कर अपने पाप संबंधी पाप मल को जलाने के लिये दाभको दोपको जला नर अग्नि मंडल पर रखना चाहिये । फिर ओं ही अर्ह श्रीजिनप्रभुजिनायकर्मभस्मबिधू, र कुरु :-वाहा ' इसमें को प. ५.५ उस जली हुई दाभ की भस्म पर जल बारा देकर उसको बुझा देना चाहिय फिर पंच परम गुरु मुद्रा धारण करनी चाहिये । फिर अ सिं आ उ सा इनका न्यास करना चाहिये अर्थात्-इनको स्थापन करना चाहिये । फिर जल मंडल यंत्र बनाकर उसके ऊपर झं वं हवः प: इन अमृत बीजों को स्थापन कर अपने मस्तक पर जल छोडना चाहिय । उसकी विधि इस प्रकार है-किसी तांबे के पात्र में (गोल कटोरा आदि में) जल भर बार उसमें अनामि का तीसरी जंगली) जंगलो से जल मंडल यंत्र लिखना चाहिये । सो हि लिखा है-" झालं स्वररावृतं तोयं मंडल द्वयवेष्टितम् ।"
फिर उस जल मंडल में आचमनी (छोटी चमची। रखकर प ओं म्ही अमृते अमृतो दधे अमृत स्रावय साबय सं सं बलीं क्लीं ब्लू ब्लू द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्राबब हं झं झ्वी क्ष्वी हं स: अ सि आ उ सा अर्ह नमः स्वाहा " पह मत्र पढ़ कर आचमनी से जल लेकर मस्तक पर डालना चाहिये और इस प्रकार तीन बार करना चाहिये । यह अमत स्नान है। फिर अपने दोनों हाथों की कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली से लेकर अनुक्रम से अंगूठे पर्यंत मूल की रेखा से ऊपर की रेखा तक पंच नमस्त्रार का न्यास करना अर्थात- स्थापन करना चाहिये । उसकी विधि उस प्रकार है- ओं न्हीं णमो अरहताणे कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ओं हों गमी सिद्धाणं अनामिकाभ्यां नमः, ओं हीं णमो आइरिआणं मध्यमाभ्यां नमः, ओं न्हीं णमो उबज्झायागं तजिनीभ्यां नमः, ओं न्हीं णमो लोए सब्बसाहूणं अंगुठाभ्यां नमः, इस प्रकार अलग अलग मंत्र पढ़ कर दोनों ही हाथों की उंगलियों की मूल रेखा से लेकर ऊपर के पर्वतक अंगूठा लगाकर अलग अलग नमस्कार करना चाहिये । इसको कर न्यास कहते
फिर “ओं न्हीं अहं वं में सं तं पं असि आ उ सा हस्त संपुटं करोमि स्वाहा " यह मंत्र पढकर दोनों हाथ मिलाकर कमल की कणिका