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भाव-सग्रह
तत्स्फुटं द्विविध भणितं सालम्ब तथा पुनः अनालम्बम् । सालम्वं पंचानां परमेष्ठिना स्वरूप तु ।। ३७४ ।।
अर्थ- वह धर्म्यध्यान दो प्रकार है एक आलंवन सहित और दूसरा आलंबन रहित । इन दोनों में से पंच परमेष्ठी के स्वरूप का चितवन करना है उसका सालंत्र ध्यान कहते है।
आग अनुक्रमम पच परमेष्ठियों का स्वरूप कहते है।
हरिरइय समवसरणो अट्ठमहापाडिहेर संजुत्तो । सिकिरणविष्फुरंतो झाघवो अरुहपरमेष्ठी ।। हरिरचितसमवशरणाऽष्ट महाप्रातिहार्य संयुक्तः । सितकारणेन विरपुरन् यसह परमेटी !' ३७५ ।।
अर्थ- जो इन्द्र के द्वारा बनाये हुए समवसरण में विराजमान है तथा आठ महा प्रतिहार्यों से सुशोभित है और जो अपनी प्रभाकी श्वेत किरणों से देदीप्यपान हो रहें है ऐम भगवान जिनेंद्रदेव को अरहंत परमेंष्ठी का ध्यान करना चाहिये ।
गठ्ठट्ठ कम्मबंधो अट्ठगुणट्ठो य लोयसिहरस्थो । सुद्धो णिच्यो सुहमो सायन्यो सिद्ध परमेष्ठी ।। नष्टाष्ट कर्यबन्धोऽष्ट गुणस्थश्च लोक शिखरस्थः ।
शुबो नित्यः सूक्ष्म; ध्यातव्यः सिद्धपरमेष्ठो ॥ ३७६ ।। अर्थ- जिन के आठों कर्म सर्वथा नष्ट हो गये है, जो सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सुशोभित है, लोक शिखर पर विराजमान है, जिनका आत्मा अत्यंत शुद्ध है, नित्य , और सूक्ष्म है एसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये ।।
छत्तीस गुणसमग्गो णिच्चं आयरइ पंच आयारो ! सिस्साणुग्गह कुसलो भणिओ सो सूरिपरमेट्ठी ॥ षत्रियागुणसमनः नित्यं आचरति पंचाचारम् । शिष्यानुग्रहकुशलः भणितः स प्रिपरमेष्ठी ।। ३७७ ।