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भाव-संग्रह
मुक्खं धस्मज्माणं उत्तं तु पमाविरहिए ठाणे । देस विरए पमत्ते उवयारेणेव णायध्वं ॥ मुख्य धर्मध्यानमुक्तं तु प्रमादविरहिते स्थाने । देश विरते प्रमत्ते उपचारेवणव ज्ञातव्यम् ।। ३७१ ।।
अर्थ- यह धर्मध्यान मुख्यता से प्रमादरहित सातवें गुणस्थान मे होता है तथा देश विरत पांचवे गुणस्थान मे और प्रमत्त संयत छठे गुण स्थान में भी यह धर्मध्यान उपचार से होता है। एसा समझना चाहिये ।
आगे दूसरे प्रकार से धर्मध्यान का स्वरुप कहते है । वहलक्खण संजुतो अहवा धम्मोति पण्णिओ सुते । चिता जो तस हवं मणिय त धम्मक्षाणुस । वशलक्षणसंयुक्तोऽथया धर्म इति वणित: सूत्रे । चिन्ता या तस्य भवेत् भणितं तबर्मच्यानमिति ।। ३७२ ।।
अर्थ- अथवा सिद्धांत सूत्रों में उसमक्षमा आदि दश प्रकार का धर्म वतलाया है उन दशों प्रकार के धर्मों का चितवन करना भी धर्म्यब्रहलाता है।
अहया वत्थुसहायो धम्म वस्थ् पुणो न सो अप्पा । झायताण कहिय धम्मशाण मुणिदेहि ॥ अथवा वस्तुस्थभावो धर्मः वस्तु पुनश्च स आत्मा । ध्यायमानाना त कथितं धन्यध्यानं मुनीन्द्रः ॥ ३५३ ॥
अर्थ- वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते है तथा वस्तुओं मे वा पदाथों में मुख्य वस्तु वा मुख्य पदार्थ आत्मा है । इसलिये उस आत्मा का ध्यान करना तथा जिसके शुद्ध स्वरुप का ध्यान करना घHध्यान है। गोमा जिनेंद्रदेव में कहा है।
आग इस अHध्यान के दूसरे प्रकार के भेद बतलाते है। तं फुड दुविहं भणियं साल तह पुगो अणालयं । मालनं पंचाहं परमेठीणं सरुवं तु ।।