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भाव - संग्रह
ए सत्तपयारा जिणदिट्ठा मासिया मए तरचा । सहइ जो हु जीवो सम्माइट्ठी हवे सो हु ।। एतानि सप्त प्रकाराणि जिन दृष्टानि भणितानि मया तत्त्वानि । श्रद्दधाति यस्तु जीवः सम्यग्दृष्टिः भवेत स तु ॥ ३४८ ।।
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अर्थ - इस प्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव के कहें हुए सात तत्वों का स्वरूप अत्यंत संक्षेप से मैंनें कहा । जो जीव इन सातों तत्त्वों का श्रद्धान करता है वही सम्यग्दृष्टी पुरुष है ।
अविरय सम्मादिट्ठी एसो उत्तो भया समासेण । एतो उ वोच्छ समासदो देस विरदो य ॥
अविरत सम्यग्दृष्टिः एष उक्तः मया समासेण । इत ऊध्वं वक्ष्ये समासलो देश विरतं च ॥ ३४९ ॥
आगे - इस प्रकार मैंने अत्यंत संक्षेप से अविरत सम्यग्दृष्टी नाम के चौथे गुणस्थान का स्वरुप कहा | अब इससे आगे संक्षेप से ही देश विरत अथवा विरताविरत नाम के पांचवे गुणस्थान का स्वरुप कहते है ।
इस प्रकार अविरत गुणस्थान का स्वरूप समाप्त हुआ ।