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भाव-संग्रह
आगे पांचवें विरताविरत गुणस्थान का स्वरुप कहते है । पंचमयं गुणठाणं विरयाविरजत्ति णामयं भणियं । तत्थवि खय उवमिओ खाइओ उपसमो चेव ।। पंचमक गुणस्थानं विरताविरत इति नामक भणितम् । तत्रापि क्षायोपशमिक: क्षायिकः औपशमिकरच ॥ ३५० ।।
अर्थ- भगवान जिनेंद्रदेव ने पांचबे गुणस्थान का नाम दिरताविरत बतलाया है । तथा उसमे औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते है।
आगं विरताविरत का अर्थ बतलाते है । जो तसवहाउ विरओ णो विरओ तह य थावरबहाओ। एक्क समयम्नि जीवो विरयाविरउत्ति जिणु कहई । यस्त्रसयघाहिरतो पो बिरसा = मात् । एक समये जीवो विरताविरत इति जिनः कथयति ।। ३५१ ॥
अर्थ- जो जीव श्रस जीवों की हिंसा त्याग कर देता है और स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं करता वह जीव एक ही समयमें बिरत और अविरत वा विरताविरत कहलाता है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है।
इलयाइथावराणं अस्थिपवित्तित्ति बिरदि इयराणं । मूलगुणछ पउत्तो बारह वयभूसिओ हु देसनई ॥ इलादि स्थावराणा मस्ति प्रवृत्तिरिति विरतिरितरेषाम् । मूलगुणाष्ट प्रयुक्तो हादसवतभूषितो हि देशयतिः ।। ३५२ ।।
अर्थ--. पांचवे मुण स्थान मे रहने वाले विरताविरत जीवों की प्रवृत्ति पृथ्वी जल अग्नि वायु वनस्पति आदि स्थावर जीवों के घात करने में होती है इसलिये वह इन स्थावर जीवों के घात का त्याग नहीं कर सकता, शेष अस जीवों के घात का त्याग कर देता है इसलिये एक देश यति अथवा विरताविरत श्रावक कहलाता है वह श्वावक आठों