________________
भाव-संग्रह
अर्थ- वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति वारह मुहुर्त है, नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है और शंष पांचों कर्मो की जघन्य स्थिति अंतर्मुहुर्त है । इस प्रकार स्थिति बंधका स्वरूप कहा ।
आगं निर्जरा का स्वरुप कहते है। पुटव कय कम्म सडणं णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा । पठमा विवायाया विदिया आंधवाय जाया य ।। पूर्वकृतकर्मसटनं निर्जरा सा पुन: भवति द्विविधा । प्रथमा विपाक जाता द्वितीया अविपाकजाता व ॥ ३४४ ।।
अर्थ- पहले संचित हुए कर्मों का सङना है छूटना है आत्मा से उनका संबंध हट जाना है उसको निर्जरा कहते है । उम निर्जरा के दो भेद है । एक विपाकजा और दुसरी अविपाकजा ।
आग दोनों निर्जराओं का स्वरुप कहते है। कालेणउवाएण पति जहा वणफ्फई फलाई । तह कालेण तवेण य पञ्चति कयाइ कम्माइ ।। काले नोपायेन च पचन्ति यथा बनस्पतिफलानि । तथा कालेन तपसा च पचन्ति कृतानि फर्माणि ।। ३४५ ।।
अर्थ- जिस प्रकार वनस्पति के आम आदि फल एक तो अपने समय के अनुसार पकते है और दुसरे पाल में देकर वा अन्य किसी उपाय से पकालिये जाते है उसी प्रकार जो कर्म अपने समय के अनुसार स्थितिबंध पूर्ण होने पर अपना फल देकर खिर जाते है नष्ट हो जाते है उसको विपाकजा निर्जरा कहते हैं । विपाक का अर्थ फल देना है । फल देकर जो कर्म खिरते है उसको विपाक निर्जरा कहते है । तथा जो कर्म विना फल दिये तपश्चरण के द्वारा नष्ट कर दिये जाते है वह अविपाक निर्जरा कहलाती है। इस प्रकार निर्जरा के दो भेद है।
इस प्रकार निर्जरा का स्वरुप कहा । अब आये मोक्ष का स्वरूप कहते है ।