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देवेन्द्र चक्रमहिमानममेयमानम्
राजेंतु धनभवनीन्वशिरोऽर्चनीयम् । धर्मेन्द्र चक्रमधरीकृतसर्व लोकम् लच्या शिवंच जिन भक्तिरुपति भल्य: ।। ४१ ।।
( रत्नकरण्ड जिनेन्द्र भगवान में सातिशय अनुराग को रखनेवाला जिमेंद्र भक्त । सम्यग्दृष्टी जीव अपरिमित प्रतिष्ठा और ज्ञान से सहित इन्द्र समूह की ! महिमा को प्राप्त करता है । ३२ हजार मुकुट वद्ध राजाओं से पूजनीय चक्रवर्ती के चक्ररलों को प्राप्त करके चक्रवर्ती बनता है । केवल इस प्रकार अभ्युदय सुख का अधिकारी नहीं होता है परतु समस्त लोक से | पूजनीय धर्म चक्र के अधिपति होकर अर्थात तीर्थकर बनकर शेष त्रिलोक । का प्रभू स्वरूप सिद्ध भगवान वनकर मोक्ष साम्राज्य को प्राप्त करता
अरहंत णमोऽकारं भावेण य जो करेदि पयवमदि । सो सव्व दु:क्व मोक्नं पायदि अचिरेण कालेण ।।
( मूलाचार ) जो उत्कृष्टमतिबाला अहंत भगवान को भावपूर्वक नमस्कार करता है । वह समस्त दुःख से अचिरकाल से अर्थात अतिशीघ्र मुक्त होकर मक्त अवस्था का प्राप्त करेगा । अरिहंत भक्तिमें तीर्थकर बन्धः
अरिहंतभ सीए - खवीद घाविकम्मा केवलणाणेण द्विवसम्बवा अरहंतणाम । अथवा णि विव छ कम्माणं
धाइबघादि कम्माणंच अरहतेत्ति सण्णा अरिहणणं पडि दोण्हं भेदा भावादो । तेसु भत्ती अरहंत भत्ती । ताए तिथयर कम्म बज्झइ । कथमेल्थ में सकारणाणं संभवो ? बुच्चदे अरहंत वुत्ताणु दाणणु बत्तणं तदणु, ट्राण पासो वा अरहंत भत्तीणाम णच एसा देसण विसुज्झदादीहि विणा संभवइ, विरोहा हो । तदो एसा एक्कार सम्म कारणं ।
।। धवला प्र५ से ८९ ।।