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भाव-संग्रह
सो तेसि मंसाणि य तेसि णामेण खावेइ ।। २९ ॥ करोति धाद्ध कश्चित्पितुः संसारतारणर्थम् । रूपा मांसति चलेष नाना खादयति ।। २९ ॥
अर्थ- जो अपने माता पिता भाई-बन्धु आदि मरकर अपने कर्मोके उदय के अनुगार चारों गतियों में परिभ्रमण करने फिरते हैं और इस प्रकार इस संसार में परिभ्रमण करते हुए समस्त जीवों के साथ यथा योग्य संबंध ग्रहण करते रहते हैं। उनमेमे वे माता-पिता के जीव तिर्य च गति में भी उत्पन्न होते हैं, हिरण, बकरा, मत्स्य आदि योनि में भी उत्पन्न होते हैं तथा पूर्व जन्म की उन्ही की संतान श्राद्धपक्षमें उन्ही माता-पिताओं के जीव को इस संसारसे पार करने के लिए श्राद्ध करते हैं और उस श्रद्धा में उन्ही के जीवोंको जो मरकर बकरा, मत्स्य, हिरण आदि की योनियों में उत्पन्न हुए हैं मारकर खिलाते हैं और स्वय खाने है । इस प्रकार श्राद्ध करनेवाले वे लोग अपने माता-पिताओं को स्वर्ग में पहुंचाने के लिय वा सारनेके लियं श्राद्ध करते हैं उस श्राद्धमे वे लोग उन्हीं माता-पिताओं के जीवों की माग्बार उसका मांस उन्हीं के नाम से खाते हैं वह कितने आश्चर्य की बात है ?
आगे इसी वातको उदाहरण देकर बतलाते हैं बंकेण जह सताओ हरिणो हणिऊण तणिमित्तण । पइ अण सोत्तियाणं दिण्णो खद्धोसयं चैव ॥ ३० ॥ वकेन तथा स्वतातो हरिणो हत्वा तन्निमित्तेन ।
प्रोणयित्वा श्रोत्रियेभ्यो दत्तः भक्षितः स्वयं चैव ।। ३० ।।
अर्थ- जिस प्रकार एक बकनें अपने पिता के श्राद्ध मे अपने ही पिता के जीव हरिण को मारकर श्रोत्रियों को खिलाया था और म्वयं भी खाया था ।
भावार्थ- एक धक नामका व्यक्ति था उसका पिता मरकर हरिण हआ था । जब उस बक में अपने पिताका श्राद्ध किया तो उस श्राद्धमें अपने पिताके जीव हरिण को ही मारकर पकाया और श्रोत्रियों खिला- . कर स्वयं भी खाया था । इस प्रकार उसने अपने पिता को तृप्त करने के लिये वा उसे तारने के लिये अपने ही पिता के जीव हरिण को मारा था और उसका मांस श्रोत्रियों को खिलाकर स्वयं ने खाया था ।