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भाव-मग्र
तल्लकहना निमितं हितं सर्वः कवलं बइम् .
दुन्धिकपात्रं च तथा प्राबरगं श्वेतवस्त्रं च ।। १४३ 11
अर्थ- इसी निमित्त को लेकर उन आचार्य शांति चन्द्र के समस्त मंघने कंवल दंड कुंडी और ओढ़ने के लिये सफेद बल्न धारन कर लिया।
चत्तं रिसि-आयरणं गड़िया सिखा म दोपवित्तीए। उवविसिय जाइऊणं भुत्त वसहीसु इच्छाए ॥ १४४ ।। त्यक्तं ऋष्याचरणं गृहीता मिक्षा च दोनवृत्या ।
उपविश्य याचयित्वा मुक्तं वसतिष्वया ॥ १४४ ।। अर्थ- इस प्रकार अन आचार्य मांति चन्द्रो संघने मुनियों के आचरण सन लोड़ दिये और वे हीनति घग्घरभिक्षा मांगकर अपनी अपनी वसतिका मे लाने लग तथा अपनी बसतीका में बैठकर इनछानसार भोजन करने लगे।
एवं बटुंताणं किसिय कालम्मि चावि परियलिए । संजायं सुरिभक्खं जपइ ता संति आइरिओ ।। १४५ ।। एवं वर्तमानानां कियत्काले चापि परिचलिते । संजात सुभिक्षं जल्पति तान् शान्त्यासाय: ।। १४५ ।। अर्थ-- इस प्रकार उन शान्तिचद्र आचार्यके संघने अपना कितना ही समय व्यतीत विया । कुछ समय के अनन्तर वहां पर भी सुभिक्ष हो गया। तब आचार्य शान्तिचन्द्रने अपने संघस कहा ।
आवाहिऊण संघं भणियं छडेय कुत्थियावरणं ।। णिदिन गरयि गिहाइ पुणरवि चरियं मुगिदाणं ।। १४६ ।। आहूय संघ भणितं त्यजत कुत्सिताचरणम् । निन्दत गर्हत गृह्णत पुणरपि चारित्रं मुनिन्द्राणाम् ।। १४६ ।।
अर्थ- आचार्य शान्तिचन्द्रने अपने समस्त संघ को बुलाकर उनस कहा कि अब इस देश में भी सुभिक्ष होगया है । इसलिये अब इन कुत्सित आचरणों को छोड़ो । अव तक जो ये कुत्सित आचारण किये हैं उनकी निन्दा करो और फिरसे मुनि दीक्षा लेकर मुनियों के शास्त्रोक्त आचरण पालन करो।