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भाव-संग्रह
इस प्रकार संशय मिथ्यात्व का स्वरूप निरूपण किया
तथा उसका निराकरण किया अव आगे अजान मिथ्यात्व का स्वरूप कहते है । मसय पूरण रिसिणा उप्पणो पासणाह तिम्मि । सिरि वीर समवसरणो अगहिय झुणिणा णियत्तेण ।। १६१ ।। मस्करिपूरणऋषिरुत्पन्नः पार्श्वनाथतीर्थे । श्री वीरसमवसरणे अगृहोतध्वनिना निवृत्तेन ।। १६१ ॥
अर्थ- भगवान पाश्वनाथ के समय में मस्करीपुरण नाम के एक मनि थे । वे भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में आये थे परत गणधर न होने में दिव्य ध्वनी हो नहीं रही थी । जब इन्द्र गौतम को ले आया था तथा आते ही गौतम ने दीक्षा धारण कर ली तथा उसे ज्ञान मनःपर्याय अवधि ज्ञान हो गया था उसो समय गणधरके स भाव होने से भगवान की दिव्य ध्वनी खिरने लगी थी। यह सब देखकर वह मस्करी पूरण मुनि बाहर निकल आया था । मस्करी पूरण ने भगवान की दिव्य ध्वनी सुनी नहीं थी। वह पहले ही समवसरण से बाहर निकल आया था।
वहिणिग्गएण उत्तं मज्जा एयारसंगधारिस्स । णिग्गइ शुणो ण अरुहो विणिग्गया सा ससी सस्स ।। १६२ ।। वहिनिगतेन उक्तं महर्ष एकादशांग धारिणे । निगच्छत्ति ध्वनि न अर्हन् विनिर्गतः स स्वशिष्याय ॥ १६२॥
अर्थ- समवशरण के बाहर आकर उस मस्करी पूरण ने लोगों से कहा कि देखो में ग्यारह अंगी का पाठी था, मैं समवशरण में बैठा रहा तथापि गवान महावीर स्वामी की दिव्य ध्वनी प्रगट नहीं हुई । जब उनके शिष्य गौतम आगये तब वह दिव्य ध्वनी प्रगट होने लगी।
ण मुणई जिणकहियसुर्य संपट्न दिक्खा य गहिय गोयमओ । विप्पो वेयम्भासी तम्हा मोक्षं ण णाणाओ ॥ १६३ ।।