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भाव-संग्रह
संकाइदोसरहियं हिस्संकाईगुणज्जुअं परमं । कम्णिज्जरणहेउं तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ।। शंफादि दोषरहित निःशंकादिगुणयुतं परमम् । कमनिर्जराहतु तच्छुई भवात सम्यवस्थन् ।। २७९ ॥
अर्थ - जो सभ्यग्दर्शन शंधःा आदि आठ दोषों से रहित होता है और निःशंकित आदि आठ गुगों सुशोभित होता है उसको परम शुद्ध सम्यग्दर्शन कहते है । ऐसा परम शुद्ध सम्यग्दर्शन कर्मों को निर्जरा का कारण होता है।
भावार्थ- शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढ दृष्टि, अनुपगहन अस्थिति करण अबात्सल्य और अनवभाना ये आठ दोष है तथा इनके विपरीत वा इनका त्याग करने से निःशंकित. निकांक्षित, निविचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थिति करण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ गुण प्रगट होते है । भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए मोक्ष मार्ग में बा देव गुरु शास्त्र के स्वरूप में वा तत्त्वों मे " यह सत्य है या नहीं " इस प्रकार की शंका करना दोष है । तथा एसी शंका कभी नहीं करना उस पर अटल श्रद्धान रखना निःशंकित गुण है इसको निःशंकित अंग कहते है। धर्म से बन कर वा भगवान की पूजा कर वा दान देकर किसी प्रकार की इच्छा करना आकांक्षा दोष है तथा ऐसी आकांक्षा न करना निःकांक्षित गुण है ! किसी मुनि के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि करना विचिकित्सा दोष है और ग्लानि न करना किन्तु उनके गुणों में अनुराग रखना निर्विचिकित्सा गुण है । सब देवों को वा सब साधुओं को मानना मूढदृष्टि दोष है और भगवान जिनेन्द्र देव के सिवाय किसी को देव नहीं मानना, निग्रंथ गरु के सिवाय अन्य किसी को गुरु नहीं मानना, भगवान जिनेन्द्र देव के बचनों को ही शास्त्र मानना अमढ दष्टि गुण है । किसी बालक वा अशवत पुरुष के द्वारा धर्म कार्य में कोई दोष भी आ जाय तो उसको प्रगट वार देना अनुपगहन दोष है और प्रगट न करना उपगृहन अंग वा गुण है । यदि कोई धर्मात्मा अपने कार्यों से श्रद्धान वा चारित्र से गिरता हो उसे छोडता हो तो उसे गिरने देना अस्थिति करण दोष है और उसको धर्म में लगा देना चारित्र वा श्रद्धान