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भाव-मग्रह
द्रव्य सहायक होता है धर्म द्रव्य एक अमूर्त पदार्थ हैं और वह बह समस्त लोकाकाश में व्याप्त होकर भरा हुआ है । वह आकाश के समान एक अखंड द्रव्य हे और मछलियों को पानी के समान जीव पुद्गलों को गमन करने में सहायक होता है। परंतु जो जीव पुद्गल ठहरे हुए हैं उनको न तो चलाता है न चलने की प्रेरणा करता है । यदि वे चलते है तो सहायक हो जाता है।
आग अधर्म द्रव्य को कहते हैं। विदो कारणं अधम्मो विसामठाणं च होई नह छाया । यहियाणं रुक्खस्स य गच्छंतं व सो घरई ।। स्थिति कारणं अधर्मः विश्रामस्थानं च भवति यथा छाया ।।३०७।। पथिकानां वृक्षस्य च गच्छतः नय से धरति ।। ३०७ ।।
अर्थ- धर्म द्रव्य के समान ही अधर्म द्रव्य है अरूपी और समस्त लोकाकाश में व्याप्त है | बह जीव जो पुद्गलों को ठहरने में सहायक होता है। जिस प्रकार ममन करते हुए पथिकों के लिये विश्राम स्थान में ठहरने के लिये वृक्ष की छाया सहायक होती है उसी प्रकार जो जीव पुद्गल गमन करते हुए ठहर जाते हैं । वा ठहरे हुए उनको ठहरने मे अधर्म द्रव्य सहायक हो जाता है । जिस प्रकार छाया गमन करने वाले पथिक को रोकतीं नहीं उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी गमन करने वाले जीव पुद्गलों को रोकता नहीं ।
आगे आका ा द्रव्य को कहते है । सम्वेसि दवाणं अवयास देइ तं तु आया । तं पुणु दुविहं भणियं लोयालोयं च जिणसमए । सर्वेषां द्रव्यानामबकाशं ददाति तत्त्वाबकाशम । तत्पुनः द्विविधं भणितं लोकालोकं च जिनसमये ।। ३०८ ।।
अर्थ- जो जीव अजीव आदि समस्त पदार्थों को अवकाश देने मे समर्थ है उसको आकाश कहते है । भगवान श्री जिनेन्द्र देव ने उसके दो भेद बतलाये हैं एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश 1 भावार्थ-आकाश