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भात्र-मत्रह
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सो पुण बुबहो मणिओ सपलो तह णिकलोत्ति णायथ्यो । सयलो अरुह सरूवो सिद्धो पुण णिक्कलो भगिओ || २७४ ।। स एषः द्विविधः भणित: सकल: तथा निष्कलः ज्ञातव्यः । सकलः अहंत्स्वरूपः सिद्धः दुनः निष्कलः भणितः ।। २७४ ।।
अर्थ- वह परमात्मा दी प्रकार का है । एक सकल परमात्मा और दूसरा निकल परमात्मा । यहा पर कल शब्द का अर्थ शरीर है जो शरीर सहित हो ऐम अरहंत भगवान को सकल परमात्मा कहते है तथा शरीर रहित सिद्ध भगवान को निकल परमात्मा कहते है।
जस्स ण गोरी गंगा काबालं व विसहरो कठे। ण य दप्पो कंदप्पो सो अरुहो भण्णए रुहो ।। २७५ ।। यस्य न गौरी गंगा कपालं नैव विषधरः कण्ठे ।
न च दर्पः कंदर्पः सोर्हन् भण्यते रुद्रः ।। २७५ ।। अर्थ- जिसने साथ न गौरी गंगा पार्वती है न गग्डा है न हाथ में कपाल है न कण्ठ में सप है न जिनको अभिमान है और न जो कामासक्त है ऐसे मगवान अरहंत देव को ही महादेव कहना चाहिये ।
जस्स ण गया ण चक्क णो संखो णेय गोविसंघाओ ।
वयरइ बह्वयारे सो अरुहो भण्णए विण्हू ।। २७६ ।। सस्य न गदा न चक्र न शंखः नव गोपीसंघातः । नावतरति दशावतारे सोऽहन भण्यते विष्णुः ।। २७६ ।।
अर्थ- जिनके हाथ में न गदा है, न चक्र है, न शंख है, न जिनक साथ अनेक गोपियों क समुदाय है और न जो दश अवतार लेने है ऐसे भगवान अरहंत देव को ही विष्णु समझना चाहिये ।
ण तिलोत्तमाय छलिओ णय वयमहो म चउमुहो जादो । ण य रिच्छोए रत्तो सो अरुहो वुच्चए वंभो ।। न तिलोत्तमया छलितः न च वतभ्रष्टो न चतुर्मुखो जातः । न ऋक्ष्यां रक्त: सोऽहन उच्यते ब्रह्मा ॥ २७७ ।।