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भाव-संग्रह
रद्धो को पुणरवि खितं खितो य होइ अंकूरो । जड़ तो नोक् यता जीया पुण हंति संसारे ॥ २३७ ॥
रः क्रूरः पुनरपि क्षेत्रे क्षिप्तश्च भवेदंकुरः । यदि तहि मोक्षं प्राप्ताः जीवाः पुनरायान्ति संसारे ।। २३७ ।।
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अर्थ- यदि रंधा हुआ धान्य खेत में बोने से अंकुर वृक्ष रूप हो भगाता है तो समझना चाहिये कि मोक्ष मे प्राप्त हुए जीव भी फिर संसार में जा सकते है ।
भावार्थ - जिस प्रकार रंधा हुआ बान्य खेत में बो देने पर भी नहीं उगता उसी प्रकार मोक्ष में प्राप्त हुए जीव फिर कभी भी संसार मे नहीं आ सकते ।
आगे और भी दिखलाते हैं ।
as freesो महप्पा विष्हू णिस्सेसकम्ममलचत्तो । किं कारण मध्याण संसारे पुणे वि पाडेइ ॥ २३८ ॥ यदि निष्कलो महात्मा विष्णुः निःशेषस्वकर्ममलच्युतः । किं कारणमात्मानं संसारे पुनरपि पातयति ॥ २३८ ॥
अर्थ- यदि ये विष्णु वास्तव मे शरीर रहित है महात्मा है और समस्त कर्ममल कलंक से रहित है तो फिर किस कारण से अपने आत्मा को फिर से ससार मे गिराते है वा संसार में परिभ्रमन कराते है ।
भावार्थ- संसार में तो दुःख ही दुःख है । रामचन्द्र भो संसारी धं इसीलिये उनकी सीता के वियोग का दुःख सहना पडा । यदि विष्णु वास्तव मे सिद्ध है तो फिर कोई ऐसा कारण नहीं है कि वे दुःख भोगने के लिये फिर संसार में आवे । सिद्ध अवस्था में तो अनन्त सुख रहता है फिर ऐसा कौन बुद्धिमान है जो अनंत सुख को छोड़कर अनेक प्रकार के दुःखों से भरे हुए इस संसार में जन्म मरण धारण करता फिरे, अर्थात् कोई नहीं ।
अहवा जइ कलसहिओ लोयबावार दिष्णणियचित्तो । तो संसारी नियमा परमप्पा हवइ ण हु विष्णू ।। २३९ ।।