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भाव-संग्रह
भेद हो जाते है ।
आगे सम्यग्दर्शन के तोन भेद दिखलाते है ।
वडवण ं च पाहणं पुणु व उद्दिदु । अविर विश्याण पि य विरयाविरयाण ते हुति ।। २६५ ।।
क्षयोपशमं च क्षाधिकं उपशमं सम्यक्त्वं पुनश्चोद्दिष्टम् | अविरतानां विरतानामपि च विरताविरतानां तानि भवन्ति । २६५
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अर्थ- क्षायिक क्षयोपशमिक और औपशमिक ये तीन सम्यग्दगंत के भेद है। ये तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन अविरत सम्यग्दृष्टी विरताविरत और त्रिरत इन सबके होते हैं 1
आगे सम्यग्दर्शन किस प्रकार प्रकट होता है, सो दिखलाते है ।
कोह चक्क पढमं अनंत बंधीणिणामयं भणियं । सम्मतं मिच्छत्तं सम्मा मिच्छत्तयं तिष्णि ।। २६६ ।।
strचतुष्कं प्रथमं अनन्तानुबन्धिनामकं भणितम् । सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं त्रीणि ।। २६६ ।।
एएल सत्तएहं उवसन करणेण जयसमं भणियं । खयओ स्वइयं जायं अञ्चलत्तं णिम्मलं सुद्धं ॥ २६७ ॥
एतेषां सप्तनामुपशमकरणेन उपशमं भणितम् । क्षयतः क्षाधिकं जातं अचलत्वं निर्मलं शुद्धम् ॥ २६७ ॥
अर्थ - अनन्तानुबंधी कोध मान माया लोभ ये चारित्र मोहनीय की चार प्रकृतियां तथा मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व ये तीन दर्शन मोहनीय की प्रकृतियां ये सात प्रकृतियाँ सम्यदर्शन को घात करने वाली है। इन सातों प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम सम्यग्दर्शन होता है तथा इन्हीं सातों प्रकृतियों के अत्यंत क्षय होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । यह क्षायिक सम्यग्दर्शन अचल है अर्थात् फिर कभी नष्ट नहीं होता सदा अनंतानंत कालतक विद्यमान रहता है तथा अत्यंत निर्मल है और अत्यंत शुद्ध है ।