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भाव-संग्रह
सहकृत: गौरीभिः दुःखभारे आत्मानं नियुक्ते । यो ब्रह्मण: शिर:कमले खण्डिते न स्फोटयति दोषम् । स ईश्वरः कथगपहरति त्रिभुवनं करोति' अशेषम् ।। २५४ ।।
अर्थ- जो महादेव नग्न होकर पर्वतोंपर घूमता फिरता है इमशान में रहता है, मनुष्यों के रुंड मंडो मे अपने मस्तक की शोभा अहाता है. मनुष्य के कपाल में भिक्षा भोजन करता है, पार्वती को सदा साथ रखता है, अपने आत्मा को सदाकाल अनेक दुःखो के समूह मे डालता रहता है, जिसने ब्रह्मा का मस्तक काट डाला और फिर उस हत्या से लगी हई ब्रह्महत्या के महापाप को दूर नहीं कर सका वह महादेव मला ईश्वर को हो सकता है और किस प्रकार इन समस्त तीनों लोकों का नाश कर सकता है । अर्थात् कभी नहीं कर सकता |
उत्तरंतज उत्तरंतज पवर सुरसरिहि । पारासुर चलिउ मणुम एलज्जकेवह दिणि । आलिकिय तपहेउ वरिवास जाउ तावसुमहामुणि भारउ पुण हउदो वहिं केसग्गह पन्वेण । जिणु मल्लिवि के केण जगिणियडय चवल मणेण ॥ २५५ ॥
अर्थ- पराशर मुनि गंगा के पार होने के लिये गंगा नदी के किनारे पहुंचे वहां पर मल्लाह की लडकी नाव चला रही थी इसलिये वे पाराशर ऋषी उसी को आलिंगन करने लगे।
अण्णाणि य रइयाई एत्थ पुराणाई अघडमाणाई। सिद्धतेहि अजुतं पुयावरदोससंकिण्णं ।। २५६ ।। अन्यानि च रचितान्यत्र पुराणानि अघटमानानि । सिद्धांतरयुक्तं पूर्वापरदोषसकोणम् ।। २५६ ।।
अर्थ- और भी ऐसे बहुत से पुराण बने हुए है जो कभी संभव नहीं हो सकते, तथा जो सिद्धांत के सर्वथा विरुद्ध है, और पूर्वापर अनेक दोषों से भरे हुए है।
एए उत्ते देवो सब्वे सद्दहइ जो पुराहि । अरिहंता परिचाए सम्मा मिच्छोत्ति णायथ्यो । २५७ ॥