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भाव-मंग्रह
प्रकार के पात्र बतलाये है। अनंतानुबंधो कपायों का भयोपशमादिक दर्शन माहनीय के साथ हो जाता है परंतु चारित्र मोहनीय वी शंष प्रवातियों का उदय ही रहता है इसलिये इस गुणस्थान में चारित्र मोइनीय को मुस्यता नहीं रक्स्त्री है। केवल दर्शन मोहनीय की अपेक्षा से . ! ही तीनों प्रकार के भाव बतलाय है । __ आग इम गणस्थान का स्वरूप अथवा इस गणस्थान में रहने वाले जीवों के भाव बतलाते है:
जो इंदिएसु विरओ यो जीवेथावरे तसे वावि । जो सद्दहइ अविर सम्पोनि णायन्यो ।। २६१ ।। नो इन्द्रियेषु विरतो नो जीवे स्थावरे असे वापि ।
यो श्रद्दधाति जिनोक्त अविरत सम्यक्त्वइति ज्ञातव्यमः ।२६१ अर्थ- इम गुणस्थान में रहने वाला जीव न तो इन्द्रियों से विरक्त रहता है न अस स्वावर जीवों की हिंसा का त्याग करता है । वह प्रमवान जिनेंद्र देव के कहे हुए बचनों पर गाढ श्रद्धान करता है। इस प्रकार उसके यथार्थ देव शारत्र गुरु के श्रद्धान करने को अथवा जीवादिक तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान करने को चौथा अविरत सम्यग्दृष्टी गणस्थान कहते है ।
भावार्थ- यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टी जीव इंद्रियों में विरक्त नहीं होता और न त्रस स्थावर जीवों की रक्षा करने का नियम लेता है तथापि सम्यग्दर्शन के प्रगट होने से उसके मंबेग वैराग्य अनुकंपा आदि आग लिखे हुए गुण प्रगट हो जाते है इसलिये त्याग न होने पर भी चित्त में बैराग्य उत्पन्न होने के कारण वह अभक्ष्य भक्षण नहीं करता और अनुकंपा होने के कारण जीवों की हिंसा नहीं करता । यदि वह अभक्ष्य भक्षण करता है और जीवों की हिंसा करता है तो उसके संवेग बराग्य और अनुकंपा आदि गुण नहीं हो सकते । तथा विना इन गुणों के उसके सम्यग्दर्शन नहीं रह सकता । और विना सम्यग्दर्शन को यह चाथा गुणस्थान नहीं हो सकता । इसके सिवाय यह भी समझ लेना चाहिये कि अविरत सम्यग्दृष्टी पुरुष देव शास्त्र गुरु का यथार्थ श्रद्धान