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भाव-संग्रह
गभाई मरणतं जीवो अथिति तं पुणो मरण । पंचभयाण णासे पच्छा जीवत्तणं णस्थि ।। १७४ ।। गर्भाविमरणान्तं जोवोऽस्तीति तस्य पुनः मरणम् । पंचभूतानां नाशे पश्चाज्जीवत्वं नास्ति || १७४ ॥
अर्थ- इस प्रकार पंच भनों में मिलकर चैतन्य शक्ति उत्पन्न होने थे। कारण गर्भ से मरण तक जीवकी सत्ता रहती है। तदनंतर जब वह जीव मर जाता है तब पंच मतों का भी नाश हो जाता है इसलिये फिर जोब की मत्ता सर्वथा नष्ट हो जाती है । फिर जीव नहीं रहता।
लिखा भी है। देहात्मिका देहकार्या वेहस्य च गुणो मतिः। ____ मतत्रयमिहाश्रित्य जीवाभावो विधीयते ।।
अर्थात्- शरीर का स्वरूप, शरीर के कार्य और शरीर के गुण इन तीनों का आश्रय लेकर जीव का अभाव निरूपण किया जाता है ।
भावार्थ-- शरीर पंच भूत है, शरीर के कार्य का सब पंच भूत रूप है और शरीर के गुण सब पच भूत रुप है। इसलिये यह चैतन्य शक्ती भी पंच भूत रूप है। वास्तव मे चैतन्य शक्ति वा जीव पदार्थ कोई अलग नहीं है इस प्रकार जीव का अभाव होता है। ऐसा चार्वाक कहता
इस सम्बन्ध में और कहा जाता है - तम्हा इंदिय सुक्खं भुंज्जिा अप्पणाई इच्छाए । खज्जइ पिन्जाइ मज मस सेविज्ज परमहिला ॥ १७५ ॥ तस्मादिन्तिपसौख्यं भुज्यतां आत्मनः इच्छया । खापतां पोयतां मद्यं मांस सेव्यतां परमहिलाः ।। १७५ ।।
अर्थ- जब इस संसार मे जीव कोई पदार्थ है ही नहीं और इसलिये स्वर्ग नरक भी नहीं है तो फिर अपनी इच्छानुसार खूब इंद्रियों के सुखों को भोगो, खूब मांस खाओ, खूब मद्य पीओ, और खूब स्त्रियोंका