________________
१०८
माव-सग्रह
अर्थ- इसलिये अच्छी तरह परीक्षा कर किसी परमब्रहम् ब्रम्हा को ढढ़ना चाहिये कि जो अठारह दोषों मे रहित हो, वीतराग हो और सदोत्कृष्ट ज्ञानीरावेज्ञ हो।
___ भावार्थ- जो बीतगग सर्वज्ञ हो और अठारह दोषों से रहित हो वही ब्रम्हा या परमात्मा हो सकता है ।
इस प्रकार इन लोगों के माने हुए ब्रम्हा का निराकरण कर यथार्थ ब्रम्हा का स्वरुप बतलाया ।
अब आगे कृष्ण के विषयों मे कहते हैं। किण्हो जइ धरइ जयं सूवरूरयेण दाढअग्गेण । तासो कहिं ठवइ पए कुम्मे कुम्मो वि कहिं ठाई ।। २२४ ।। कृष्णो यदि पारयति जगत् शूकररूपेण दंष्ट्राग्रेण । तहि स कुत्र तिष्ठति पदे कम कूर्मोपि कुत्र तिष्ठति ॥ २२४ ।।
अर्थ- यदि वृक्षण इन तीन लोंको का धारण करते है तथा सूअर का रुप धारण कर अपनी दाढ़ के अग्रभाग पर रखकर इस जगत को जटाये हुए है तो फिर बताना चाहिये कि वे मुअर का रूप धारण किय हा कृष्ण स्वयं कहां ठहरे हुए है ? यदि कहो कि वे कछवाके ऊपर
हो हार है तो फिर यह बताना चाहिये कि वह कच्छप काहां टहरा हुआ है।
अह हिऊण तउअरो तिजयं पालेह महमहो णिच्चं । कि सो तिजय बहित्यो तिजयवाहित्थेण कि जाओ ।। २२५ ॥ अथ स्पशित्वाकरं त्रिगगत् पालयति मधुमद : नित्यम् । कि स त्रिजगदहिस्थः त्रिजगढहिःस्थेन किं जातम् ।। २२५ ।।
अर्थ-- यदि कृष्ण उस सूअर को छ्कर सदावाल इस तीनों लोकों का पालन करता है तो क्या वह कृष्ण तीनों लोकों से बाहर है? अश्वा क्या वह तीनों लोक तीनों लोकों के बाहर बनाया गया है ?
जइ या वहइ पुनो रामो णिवसेइ दंडरइणम्मि । लंकाहि वेण छलिओ हरिया भज्जा पवंचेण ।। २२६ ।।