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भाव-संग्रह
थी, न आकाश था, न वायु थी. अग्नि थी, न जल था, न प्रकाश या न चंद्रमा था न सूर्य था तो फिर यह भी तो बतलाना चाहिये कि जरा अम्हा ने कहां बैठकर यह तीनों लोक बनाये ।
कत्तित्तं पुण दुविहं वत्थुअ कत्तित्त तह य विक्किरियं । घडपड गिहाई पढम विक्किरियं देवया रइयं ।। २१८ ॥ कर्तृत्वं पुन: विविध वस्तुनः कर्तृत्वं तथाच येक्रियिकम् ।
घट पट गृहादि प्रथम वैक्रियिक देवता रचितम् ।। २१८ ॥ अर्थ-- कापन दो प्रकार है एक तो यथार्थ कर्मापन और दुसरा वक्रियिक । घट पट घर को बनाना यथार्थ कर्तापन है और जो देवों के द्वारा बनाया जाता है बह बंक्रियिक कहलाता है ।
जइ तो वत्थनभूओ रइओ लोओ विरंचिणा तिविहो । तो तस्स कारणाई कत्थुव लखाई दध्वाहं ॥ २१९ ।। यदि स वस्तुभूतो रचितो लोको बिरंचिना त्रिविधः ।
तहि सस्य कारणानि कुत्र लब्धानि द्रव्याणि ।। २१९ ।।
अर्थ- यदि उस ब्रम्हा ने यथार्थ रूप से तीनों लोकों को बनाया है तो यह बताना चाहिये कि ब्रम्हा ने तीनों लोकों को बनाने के कारण भत द्रव्य कहां से प्राप्त किये । भावार्थ- जिस प्रकार घर बनाने के लिय ईट, चूना, राज आदि कारण सामग्री की आवश्यकता होती है। तब घर बन सकता है उसी प्रकार तीनों लोक बनाने के लिये सव सामग्री कहां थी । क्योंकि विना सामग्री के तो लोक वन ही नहीं सकता था।
जइ विविझरिओ रइओ विज्जाथामेण तेणवभेण । कड़ थाइ दोहकाले अवस्थुभूओ अणिज्चेत्ति ।। २२० ।। अथ विक्रिया रचितो विद्यास्थाम्ना तेन ब्रम्हणा। कथं तिष्ठति वीर्घकालं अवस्तुभूतोऽनित्य इति ।। २२० ।। अर्थ- यदि इस ब्रम्हा ने अपनी विद्या से वेक्रियिक रूप तीनों